________________ की अपेक्षा उन्हें पञ्चेन्द्रिय कहा गया है।' इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय जाति नाम कर्म का उदय होने से केवली पञ्चेन्द्रिय जीव कहलाते हैं। यहाँ और अधिक स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं कि - आवरण के क्षीण होने से, पञ्चेन्द्रियों के क्षयोपशम के नष्ट हो जाने पर भी क्षयोपशम से उत्पन्न और उपचार से क्षायोपशमिक संज्ञा को प्राप्त पाँचों बाह्येन्द्रियों का अस्तित्व पाये जाने से सयोगी और अयोगी जिनों के पञ्चेन्द्रियत्व सिद्ध होता है। केवली के मन तथा मनोयोग होता है या नहीं, इसके विषय में आचार्य कहते हैं कि - सयोग केवली के वास्तविक रूप से देखा जाय तो मन नहीं है फिर भी छद्मस्थ जीवों के वचन मनोयोग पूर्वक होते हैं उस बात को देखकर केवली के दिव्यध्वनि रूप वचन देखकर इनके भी उपचार से मनोयोग स्वीकार किया है। और भी कारण बताते हुए कहते हैं कि - केवली के द्रव्यमन मौजूद है तथा उनके मनोवर्गणा का ग्रहण भी पाया जाता है, इन कारणों से इन्द्रियज्ञान से रहित होते हुए भी उनके मन का सद्भाव तथा मनोयोग उपचार से माना जाता है।' योगों के विषय में आचार्य कहते हैं कि वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण कर्म के क्षय हो जाने पर भी सयोगकेवली के तीन प्रकार की वर्गणाओं की अपेक्षा आत्मप्रदेश में परिस्पन्द होता है वह भी योग है ऐसा जानना चाहिये।' द्रव्येन्द्रियों के अभाव होने के कारण केवली के कायबल, वचनबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण होते हैं।' सयोग केवली के लेश्या के विषय में आचार्यों का यह मत है कि - जो योगप्रवृत्ति कषाय के उदय से अनुरंजित है वही यह है इस प्रकार पूर्वभाव प्रज्ञापन नय की अपेक्षा उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानों में भी लेश्या का उदय मान्य है। यहाँ ध. 1/37 ध. 7/15 गो. जी. का. ग. 228-229 स. सि. 6/1, ध. 1/123 ध. 2/1,1/444 स. सि. 2/6/160, रा. वा. 2/6/8/109, गो. जी. का. गा. 533 179 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org