________________ यहाँ आचार्य का आशय यह है कि - सदाशिव मत वाले जीव को सदा मुक्त और कर्ममल से अस्पृष्ट शाश्वत मानते हैं। उसका निराकरण करने के लिये ही 'सिद्धभगवान् आठ कर्मों से रहित हैं' ऐसा कहा है। पूर्व में जो बंधा हुआ होता है उसी के लिये 'मुक्त' पद का व्यवहार किया जाता है। अबद्ध होने से आकाशादि को 'मुक्त' शब्द का व्यवहार नहीं होता है। इससे सिद्ध होता है कि बन्धपूर्वक ही मोक्ष होता है। सांख्य मत मानता है कि प्रकृति को ही बन्ध-मोक्ष एवं सुख-दुख होता है आत्मा को नहीं। इसका निराकरण करने के लिये कहा गया है कि 'सिद्ध शान्तिमय हो गये। आत्मा ही मिथ्यादर्शनादि भावरूप परिणत होती है और उसके कारण कर्मबन्ध होता है, उसके फलस्वरूप ही दु:ख होता है। सम्यग्दर्शनादि परिणत आत्मा को मोक्ष होता है और उसका फल सुखरूप शान्तिभाव है। प्रकृति अचेतन है, उसको सुख-दु:ख का अनुभव नहीं हो सकता। मस्करी का सिद्धान्त है कि - मुक्तजीव भी कर्मरूप अंजन का संश्लेष सम्बन्ध होने से पुनः संसारी हो जाते हैं, क्योंकि सभी जीवों के मुक्त हो जाने पर संसार रिक्त हो जायेगा। इसका निराकरण करते हुए आचार्य कहते हैं कि - सिद्धजीव निरञ्जन हैं। समस्त भावकर्म-द्रव्यकर्म के पूर्णरूप से नष्ट हो जाने पर विशुद्ध स्वभाव वाले जीव के बन्ध के कारण मिथ्यादर्शनादि भावकर्म का अभाव है। आयरहित और व्ययसहित होने पर भी जिस राशि का अन्त न हो वह अनन्त है और जीव अनन्तानन्त हैं, इसलिये संसारी जीवों का अभाव नहीं होगा। बौद्धमत वाले मानते हैं कि ज्ञान-संतान का अभाव मोक्ष है' इसका निराकरण करने के लिये आचार्य ने 'णिच्चा' विशेषण दिया है। यदि ज्ञानसंतानक्षय रूप मोक्ष हो तो ऐसे मोक्ष के लिये कोई भी प्रयत्न नहीं करेगा, क्योंकि अनिष्टफल के लिये प्रयत्न करना अशक्य है। लोक में प्रसिद्ध है कि बुद्धिमान पुरुष कभी अपने अहित के लिये प्रवृत्ति नहीं करता। जीवादि सब द्रव्य अनादि-निधन हैं। बौद्धों का द्रव्यों को क्षणिक मानना प्रत्यक्ष विरुद्ध है। नैयायिक और वैशेषिक दार्शनिक मानते हैं कि - बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म तथा संस्कार, आत्मा के इन नौ विशेष गुणों की अत्यन्त व्युच्छित्ति मुक्ति है। उनका निराकरण करने के लिये 'अट्ठगुणा' विशेषण दिया है। परमात्मा के स्वाभाविक केवलज्ञानादि गुण हैं। गुणों का नाश होने पर उन गुणों से अभिन्न 192 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org