________________ अर्थात् क्षपक संन्यास धारण करने के योग्य होता हुआ, परिग्रह का त्यागी, कषायों को कृश करने वाला, परीषह रूपी सेना को जीतने वाला, उपसर्गों को सहन करने वाला, इन्द्रिय रूपी मल्लों पर विजय प्राप्त करने वाला और मनरूपी हाथी के प्रसार को अवरुद्ध करने वाले के चिरकाल से अनेक भवों में बंधे हुए कर्मों का क्षय करता है। कर्मों का क्षय करने में जो तत्पर है, उसे क्षपक कहते हैं। ऐसे क्षपक को सम्बोधित करते हुए आचार्य कहते हैं कि सल्लेखना धारण करने से पहले उसको धारण करने के योग्य बनो, उसके पश्चात् द्विविध परिग्रह का त्याग करके चारों कषाओं को कर्ष करो और बाईस परीषहों की सेना पर जय प्राप्त करो। तदुपरान्त उपसर्गों को सहन करके स्पर्शादि पाँच इन्द्रियरूपी मल्लों को जीतकर अन्त में मनरूपी मदमत्त हाथी को जीतने से चिरसंचित कर्मों का क्षय हो सकेगा। आराधक को ही क्षपक कहते हैं और आराधना का फल सल्लेखना कहा गया है। उसको प्राप्त करने के लिये क्या योग्यता होनी चाहिये, उसका वर्णन करते हैं 1. संन्यास धारक छंडियगिहवावारो विमुक्कपुत्ताइसयणसंबंधो। जीविय धणासमुक्को अरिहो सो होइ सण्णासे॥ अर्थात् जिसने गृहसम्बन्धी व्यापार छोड़ दिया है, पुत्र-पौत्रादि आत्मीय जनों से सम्बन्ध छोड़ दिया है, जो जीवन तथा धन की आशा से मुक्त है, ऐसा क्षपक ही संन्यास ग्रहण करने के योग्य होता है। अयोग्य का त्याग करना और योग्य को ग्रहण करना संन्यास कहा गया है। यह शरीर मेरा है, इसने अभी तक मेरा साथ निभाया है, इसका विघटन अर्थात् नाश न हो, ऐसा विचार करना जीवित आशा है। धन-धान्यादि परिग्रह की अभिलाषा को धन-आशा कहते हैं। योग्य व्यक्ति की तीन विशेषतायें इंगित की गई हैं - त्यक्तगृहव्यापार, पुत्र आदि स्वजन के सम्बन्ध से रहित और जीवित एवं धन आशा से मुक्त होना। बाल्य, यौवन और वार्धक्य इन तीनों अवस्थाओं में से कौन सी अवस्था में संन्यास ग्रहण करना श्रेष्ठ है? ऐसी जिज्ञासा करने पर समाधान करते हुए आचार्य कहते आराधनासार गा. 24 225 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org