________________ केवली भगवान् का निर्वाण गमन करना ही पण्डित-पण्डितमरण कहलाता है और देशव्रती श्रावक का बालपण्डित मरण होता है। जो साधक आराधनाओं की आराधना करता है, आचारांग की आज्ञानुसार यथोक्त चारित्र का पालन करते हैं, उन साधुओं के पण्डित मरण होता है। इस पण्डित मरण के तीन भेद आचार्यों ने प्ररूपित किये हैं-भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन मरण।' जिसमें संघस्थ साधुओं से वैयावृत्य कराते हैं और स्वयं भी अपनी वैयावृत्य करते हैं एवं यथाक्रम से आहार, कषाय और देह का त्याग करते हैं उसे भक्तप्रत्याख्यान मरण कहते हैं। जिसमें अन्य किसी से वैयावृत्य तो नहीं कराते हैं। कदाचित् उठना, बैठना, चलना, हाथ-पैर फैलाना, सिकोड़ना, सोना आदि क्रियायें स्वयं करते हैं, परन्तु बिना कराये यदि कोई करता है तो मौन रहते हैं, ऐसे आहार-पान के त्यागी साधु एकाकी देह का त्याग करते हैं, उसे इंगिनी मरण कहते हैं। जिसमें न ही अन्य किसी से वैयावृत्य कराते हैं और न ही स्वयं करते हैं, समस्त काय, वचन की क्रिया से रहित जीवन पर्यन्त त्यागी मृतक के समान दिखाई देने वाले साधु मरण करते हैं, वह प्रायोपगमन मरण कहलाता है। समाधिधारक की प्रशंसा करते हुए आचार्य कहते हैं कि तुमने दुर्लभ संयम रूपी रत्न को धारण किया तथा संन्यास धारण कर उत्तम मरण प्राप्त किया इसलिये तुम धन्य हो यह मनुष्य भव सफल किया। आगे कहते हैं कि यह सच है कि समाधि में क्षपक को मन तथा शरीर सम्बन्धी दु:ख होता है। बाह्य तप उपवासादि के कारण शरीर के समस्त अंग-प्रत्यंग शिथिल हो जाते हैं और उनमें अत्यन्त वेदना होती है। उस क्षधा और तृषा से उत्पन्न होने वाली वेदना के कारण शरीर दुर्बल हो जाता है परन्तु उस वेदना को साम्यभाव से सहन करना चाहिये। समाधिधारक को सम्बोधन करते हुए कहते हैं-शारीरिक कष्ट का अनुभव क्षपक को विचलित भी कर देता है, किन्तु निर्यापकाचार्य उस क्षपक के स्थितिकरण के लिये सम्यक् उद्बोधन देते हैं। वस्तुतः अनेकों बार ऐसा होता है कि भूख-प्यास की भग, आ. गा. 29 भग, आ. गा. 93 237 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org