________________ . अन्य दर्शनों की अपेक्षा जैनदर्शन के ध्यान की अवधारणा में कुछ भिन्नता प्रतीत होती है। कुछ (योग आदि) दर्शनों में ध्यान और योग को लगभग एक समान मान्यता है परन्तु जैनदर्शन में ध्यान और योग का स्वरूप अत्यन्त भिन्न है। जहाँ मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को योग कहा गया है, वहाँ इन तीनों को एकाग्र करके किसी एक पर स्थिर हो जाना ध्यान है। अन्य मतों की अवधारणा के अनुसार मन की स्थिरता को योग कहा गया है। बौद्ध दर्शन की अपेक्षा यदि ध्यान का स्वरूप कहें तो चित्त का अभ्यास ही ध्यान है और कुशल चित्त की एकाग्रता को समाधि कहा गया है। भारतीय संस्कृति में ध्यान का विशेष महत्त्व है, यथा आरोग्य शास्त्र में रोग, रोग के कारण, आरोग्य और आरोग्य के कारण वर्णित किये गये हैं तथा जैन शास्त्रों में संसार, संसार के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारणों का प्रतिपादन है और उस मोक्ष की प्राप्ति ध्यान के द्वारा ही संभव है। अतः कर्मों को जलाने के लिये आचार्यों ने ध्यान का अवलम्बन धारण करने की शिक्षा प्रदान की है। यह ध्यानरूपी अग्नि ही है जो निधत्ति और निकाचित. कर्मों को भी लकडी की तरह भस्म कर देती है। इसी ध्यान को संस्कृत व्याकरण के अनुसार ध्यै धातु से चिन्ता के अर्थ में ग्रहण किया गया है। सामान्य रूप से एकाग्रता पूर्वक चिन्ता का निरोध करना ध्यान कहलाता है। मुख्यतया ग्रन्थों पर जब दृष्टिपात करते हैं तो सभी आचार्यों ने लगभग एक समान स्वरूप प्ररूपित किया है। आचार्य उमास्वामी ने एक सूत्र में ही ध्यान किसके होता है? ध्यान का स्वरूप और ध्यान का समय, इन तीन तथ्यों को निर्दिष्ट किया है। आचार्य उमास्वामी कहते हैं कि - 'उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्ता निरोधो ध्यानमान्तर्महात्' उत्तम संहनन वाले के अर्थात् वज्रवृषभ नाराच संहनन वाले के, एकाग्रता से चिन्ता का निरोध करना अर्थात् चित्तवृत्ति को रोकना ध्यान कहलाता है। वह ध्यान मात्र अन्तर्मुहूर्त के लिये होता है। इस सत्र में आचार्य उमास्वामी ने तीनों विषयों को एकत्रित कर दिया है। ध्यान में चित्त की स्थिरता अर्थात् एकाग्रता होनी चाहिए अन्यथा ध्यान संभव नहीं है। एकाग्रता को ही ध्यान क्यों कहा जाता है? तो इसका समाधान करते हुए आचार्य रामसेन कहते हैं कि - एकाग्रता का अर्थ व्यग्रता की विनिवृत्ति है और ज्ञान ही वास्तव में व्यग्र होता है ध्यान नहीं। चित्त में व्यग्रता होगी तो फिर ध्यान किस प्रकार से संभव 241 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org