________________ होगा, जैसे बाहुबलि भगवान् के मन में स्थिरता न आ पाने के कारण ही वह एक वर्ष तक निश्चल खड़े रहे परन्तु वह स्थिर, अविचल, अन्तर्मुहूर्त का ध्यान नहीं हो पाने के कारण केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं कर पाये थे और बाद में चित्त की एकाग्रता आई, ध्यान की सिद्धि हुई और केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसी कारण से ध्यान में एकाग्रता होना परम आवश्यक है। श्वेताम्बर आगमों (उत्तराध्ययन और आवश्यकनियुक्ति आदि) में ध्यान का स्वरूप इसी प्रकार से प्रतिपादित किया गया है। आवश्यक नियुक्ति में कहा गया है कि - आलम्बन में प्रगाढ़ रूप से संलग्न तथा निष्प्रकम्प चित्त ध्यान कहा है। आलम्बन में मृदु भावना से रहित अव्यक्त और अनवस्थित चित्त ध्यान नहीं कहलाता है। 'ध्यै' चिन्तायामिति धातोः निष्पन्नोऽयं ध्यानशब्दः। ध्यै धातु से चिन्ता के अर्थ में जो शब्द बनता है वह है ध्यान। सामान्य रूप से एकाग्रतापूर्वक चिन्ता का निरोध करना ध्यान कहलाता है। मुख्यतया ग्रन्थों पर जब दृष्टिपात करते हैं तो आचार्य उमास्वामी द्वारा निर्दिष्ट ध्यान का स्वरूप दृष्टिगोचर होता है। आचार्य उमास्वामी लिखते हैं कि - 'उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्ता निरोधो ध्यानमान्तर्महूर्तात्" अर्थात् उत्तम संहनन वाले के, इसका यह अभिप्राय हुआ कि वज्रवृषभ नाराच संहनन वाले के, एकाग्रता से चिन्ता का निरोध करना अर्थात् चित्तवृत्ति को रोकना ध्यान कहलाता है। वह ध्यान मात्र अन्तर्मुहूर्त के लिये होता है। इस सूत्र में आचार्य उमास्वामी ने तीनों विषयों को एकत्रित कर दिया है। एक ध्यान किसके होता है? दुसरा ध्यान क्या कहलाता है? तीसरा ध्यान कितने समय के . लिये होता है? एक सूत्र में सारी बातें कह दी जो अन्य किसी के लिये इतना सहज नहीं था। ध्यान का स्वरूप बताते हुए आचार्य पूज्यपादस्वामी लिखते हैं कि चित्त के विक्षेप का त्याग करना ध्यान है। इसी प्रकार ध्यान का स्वरूप विशेष रूप से व्याख्यायित करते हुए आचार्य जिनसेन स्वामी लिखते हैं कि तन्मय होकर किसी एक ही वस्तु में जो चित्त का निरोध कर लिया जाता है उसे ध्यान कहते हैं। वह ध्यान वज्रवृषभ नाराच संहनन वालों के अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही रहता है। और विस्तारपूर्वक बताते हैं जो चित्त त. सू. 9/27 स. सि. 9/20 आ. पु. 21/8 242 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org