________________ पात्र होता है। आशय यह है कि केवल स्वरूप का आलम्बन होने पर द्रव्य की चिन्ता के सभी विकल्पों का त्याग होने से और पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत रूप ध्यान का आलम्बन के क्षय हो जाने से आत्मा में निरवलम्ब ध्यान होता है। 10 बहिरंग और 14 अन्तरंग परिग्रह ऐसे सम्पूर्ण चौबीस प्रकार के परिग्रह का त्याग करके ही निरवलम्ब ध्यान कर सकता है। अथवा अन्तरंग में अशुद्ध निश्चय नय (रागादि भावों) का त्याग करके निजात्म में रमण करना परिग्रह का त्याग कहा जाता है। कोई यदि ऐसा विचार करके कि परिग्रह भी रहे और मन की शान्ति भी प्राप्त हो तो यह असंभव है, क्योंकि जिसे प्रकार उष्णता अग्नि की सहचर होती है उसी प्रकार अशान्ति, क्षोभ, दु:ख आदि परिग्रह के सहचर हैं। सभी प्रकार का परिग्रह संसार में रोकने वाला है। इस परिग्रह का त्याग करने पर ही यह क्षपक निर्ग्रन्थ अर्थात् गाँठ रहित हो पाता है। परिग्रह के त्याग के पश्चात् कषायों को कृश करना अगला लक्ष्य होता है। 3. कषाय सल्लेखना - यह शरीर इन्द्रियमय है, निज-निज विषयों में सेवन करने की इच्छा होती है। इन दोनों पर जो मोह रहित होता है, वह मन्दकषायी क्षपक कषाय सल्लेखना वाला होता है। यहाँ पर अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चार कषायों के क्षय और क्षयोपशम से होने वाले परिणाम को मन्दकषायी कहा गया है। जो मन्दकषायी होता है वही भव्यात्मा शरीर और इन्द्रिविषयों के प्रति हतमोह अर्थात् मोह रहित होता है। जिन्होंने कषायों को नहीं जीता है, परन्तु इन्द्रिय विषयों का त्याग करके सल्लेखना करता है तो ऐसा करने वालों को क्या फल मिलता है, उसे बताने के लिये आचार्य कहते हैं कि - जब तक कषायें मन्द नहीं होती हैं, तब तक मुनि के द्वारा बाह्य योग से की गई समस्त शरीर सल्लेखना फल रहित अर्थात् व्यर्थ होती है। कषायों को कृश किये बिना शीत, उष्ण वायु को सहना, आतापन योग करना, अनेक प्रकार के शारीरिक कष्ट सहन करना, दान-पूजा आदि के द्वारा शरीर को कृश करना व्यर्थ है। परम लक्ष्य की दृष्टि से कषाय सहित तप व्यर्थ है, परन्तु यह सर्वथा व्यर्थ नहीं होता है, क्योंकि आगामी भवों में इस आराधनासार गा. 34 आराधनासार गा. 35 227 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org