________________ हैं कि - जब तक वृद्धावस्था रूपी व्याघ्री आक्रमण नहीं करती, इन्द्रियाँ शिथिलता को प्राप्त नहीं हो जातीं, जब तक बुद्धि नष्ट नहीं हो जाती, जब तक आयु रूपी जल नहीं गल जाता, निश्चय से जब तक अपने आप के आहार, आसन और निद्रा पर नियन्त्रण है, अपना आत्मा स्वयं निर्यापकाचार्य बनकर अपने आपको नहीं तार लेता है, अंगोपांग और संधियों के बन्धन ढीले नहीं पड़ जाते, शरीर मृत्यु के भय से भीरु पुरुष के समान कम्पित नहीं होता तथा संयम, तप, ज्ञान, ध्यान और योग में जब तक उद्यम नष्ट नहीं हो जाता, तब तक वह पुरुष संन्यास के योग्य नहीं होता है।' - अभी तक का समस्त विवेचन बाहरी लक्षणों को ध्यान में रखकर किया गया है जो कि व्यवहार की कोटि में आता है। अब आगे निश्चय नय की अपेक्षा कथन करते हैं - विकल्परहित जिस श्रमण का अपने स्वभाव में स्थिरता पा जाना ही निश्चय नय से निश्चयवादियों अर्थात जो निश्चय को प्राप्त कर चुके हैं, ने संन्यास कहा है। निश्चय नय अभेद रूप से कथन करता है। अतः इसकी अपेक्षा आधार और आधेय एक ही होता है, भिन्न-भिन्न नहीं होता। यहाँ एक बात ध्यातव्य है कि अन्तरंग लक्षण का धारक निश्चित ही बहिरंग. . . लक्षण का धारक होता है। किन्तु बहिरंग लक्षण का धारक अन्तरंग लक्षण का धारक हो भी सकता है और नहीं भी। अब द्वितीय जो योग्यता है वह है संगत्याग। 2. संगत्याग - संगत्याग से तात्पर्य सम्पूर्ण परिग्रह के त्याग से है। इसी सन्दर्भ में आचार्य कहते हैं खित्तादिबाहिराणं अन्भिंतरमिच्छपहुदिगंथाणं। चाए काऊण पुणो भावह अप्पा णिरालंबो॥' . अर्थात् जिसने क्षेत्रादि दस बाह्य और मिथ्यात्वादि चौदह अन्तरंग परिग्रह का त्याग कर दिया है, वही भव्य आत्मा आलंबन रहित शुद्धात्मा का ध्यान करने के योग्य आराधनासार गा. 25-28 आराधनासार गा. 29 आराधनासार गा. 30 226 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org