________________ (ii) देवकृत उपसर्ग - जो देवों के द्वारा उपसर्ग किये जाते हैं वे देवकृत उपसर्ग कहे जाते हैं। इसके अन्तर्गत पार्श्वनाथ, श्रीदत्त मुनि, सुवर्णभद्र आदि मुनि वर्णित किये गये हैं। (iii) मनुष्यकृत उपसर्ग - जो मनुष्यों के द्वारा उपसर्ग किये जाते हैं वे मनुष्यकृत उपसर्ग कहलाते हैं। इसके अन्तर्गत गुरुदत्त, पाण्डव, गजकुमार, चाणक्य मुनि, अभिनन्दनादि 500 मुनिराज, अकम्पन आदि 700 मुनिराज संयन्तमुनि आदि आते (iv) तिर्यञ्चकृत उपसर्ग - जो तिर्यञ्चों के द्वारा उपसर्ग किये जाते हैं वे र्तियञ्चकृत उपसर्ग कहलाते हैं। इसके अन्तर्गत सुकुमाल मुनि, सुकौशल मुनि ... आदि हैं। इन सभी की कथाओं का विस्तार से वर्णन अन्य कई आगम ग्रन्थों में एवं आराधनासार में किया गया है। इन उपसर्गों को साम्यभाव से सहन करने से मुनियों ने शुक्लध्यान के द्वारा केवलज्ञान की प्राप्ति करके मोक्षपद को प्राप्त किया। इन मुनियों ने जिस प्रकार महान् उपसर्गों को समताभाव से सहन किया और मुक्ति को प्राप्त किया, उसी प्रकार हे क्षपक! तुमको भी सहन करना चाहिये। 6. इन्द्रियजय - उपसर्ग विजय के अनन्तर इन्द्रियों को जीतना बताते हुए आचार्य कहते हैं - जिसने सभी प्रकार के आरम्भ और परिग्रह का त्याग करके संन्यास को धारण कर लिया है, फिर भी यदि उसकी इन्द्रियविषयों के प्रति लालसा नष्ट नहीं होती है, तो उस साधक का दर्शन, ज्ञान और तप आदि आराधना करना निश्चित रूप से निष्फल हो जाते हैं।' जब तक अपने मन से इन्द्रिय-विषयों की अभिलाषा और व्यापार नहीं छोड़ देता तब तक क्षपक (साधक) सम्पूर्ण दोषों का निराकरण कैसे कर सकता है? अर्थात् अशक्य होता है। इसी विषय को पुष्ट करते हुए आराधनासार के टीकाकार रत्नकीर्तिदेव कहते हैं पठतु सकलशास्त्र सेवतां सूरिसंघान् दृढयतु च तपश्चाभ्यस्तु स्फीतयोगम्। आराधनासार गा.54 231 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org