________________ 3. निर्मथित राग-द्वेष - अपनी आत्मा के समान समस्त जीवराशि का अवलोकन करने से जिसके हृदय से इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में होने वाली प्रीति एवं अप्रीति नष्ट हो गयी है, वह आराधना करने की क्षमता रखने वाला आराधक है। इस प्रकार आराधक के 11 लक्षणों/विशेषणों को प्ररूपित किया। विराधक - अब आराधक के विपरीत स्वभाव वाला जो होता है उस विराधक का स्वरूप कहते हैं जो रयणत्तयमइओ मुत्तूणं अप्पणो विसुद्धप्या। चिंतेड़ य परदव्वं विराहओ णिच्छयं भणिओ॥' . . अर्थात् जो प्राणी रत्नत्रय से सहित निज शुद्धात्मा के ध्यान को छोड़कर परद्रव्य का चिन्तन करता है वह निश्चय से आराधना का विराधक (घातक) कहलाता है। आचार्य देवसेन स्वामी के कथन का तात्पर्य यह है कि हेय और उपादेय वस्तुओं के ज्ञान से रहित होने के कारण जो आराधक पुरुष के विलक्षण है स्वभाव जिसका वह पुरुष विराधक कहा गया है। निज आत्मा ही उपादेय है इसलिये उसे छोड़कर परद्रव्य का चिन्तन करना आराधना में बाधा उत्पन्न करता है। यहाँ कोई शंका करता है कि यदि उपादेयभूत निजात्मा का चिन्तक आराधक है और पर पदार्थों का चिन्तन करने वाला विराधक है तो फिर पञ्चपरमेष्ठी की आराधना करने वाला भी विराधक होगा। तो इस शंका का परिहार करते हुए कहते हैं कि यद्यपि आपका कथन सत्य है तथापि पंचपरमेष्ठी के चिन्तन से निजात्मा की ओर ही प्रवृत्त होता है, क्योंकि आराधना के सम्मुख पुरुष की एकाग्रता निजात्मा में नहीं हो पाती। इसलिये उस स्थिरता की प्राप्ति के लिये और विषय-कषायों से बचने के लिये शुद्धात्मध्यान में निमित्तभूत पंचपरमेष्ठियों के स्वरूप की आराधना करता है, भले ही ये आत्मस्वरूप से भिन्न हैं। वह विराधक तब हो सकता है जब वह पंचपरमेष्ठी की आराधना संसार परिभ्रमण के कारणभूत इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी ख्याति, पूजा, लाभ, भोग आदि से उत्पन्न होने वाले सुख रूप निदान की अभिलाषा करता है, क्योंकि उसका यह कार्य संसार का ही कारण है। आराधनासार गा. 20 223 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org