________________ अथवा व्यवहार में सम्यग्दर्शन की पूजा करना, उसके पच्चीस दोषों का निराकरण करना भी दर्शन विनय कहलाता है। सम्यग्ज्ञान के साधनभूत जिनेन्द्र कथित शास्त्रों की विनय करना, उनकी पूजा करना और शास्त्रज्ञों का सत्कार करना ज्ञान विनय है। तेरह प्रकार के चारित्र की विनय करना, चारित्र धारण करने का उत्साह रखना चारित्र विनय है। सम्यग्चारित्रधारी मुनिराज के आने पर खड़े हो जाना, चलने पर उनके पीछे-पीछे चलना, परोक्ष में उनको नमस्कार करना, उनकी आज्ञा का पालन करना, ये सब उपचार विनय है। बारह प्रकार के तप करने का अनुराग रखना, तपश्चरण करने में उत्साह रखना तप विनय है। 3. वैयावृत्य तप - आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इन दश प्रकार के पात्रों की यथायोग्य सेवा करना वैयावत्य कहलाता है। जो भव्य जीवों को मोक्षमार्ग की शिक्षा देते हैं, दैगम्बरी दीक्षा प्रदान करते हैं, प्रमाद और अज्ञान से लगे हुए दोषों का निराकरण करने के लिये प्रायश्चित्त देते हैं, वे चतुर्विध संघ के नायक आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं। जो 11 अंग और चौदह पूर्व के पाठी होते हैं, संघ में सभी साधुओं को पठन-पाठन कराते हैं, वे उपाध्याय परमेष्ठी कहलाते हैं। जो अनशन आदि घोर तपश्चरण करते हैं, वे तपस्वी कहलाते हैं। जो संघ में रहकर ज्ञानार्जन करते हैं, ज्ञान-ध्यान में लीन रहते हैं, वे शैक्ष्य कहलाते हैं। वृद्ध रोगी साधु ग्लान कहलाते हैं। अपने गुरुओं के द्वारा दीक्षित अथवा गुरु परम्परा में दीक्षित मुनि कुल कहलाते हैं। साधुओं के समूह को गण कहते हैं। मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका के समूह को संघ कहते हैं। जो वाग्मी हैं, तत्त्ववेत्ता हैं, जिनसे धर्मप्रभावना होती है, समाज पर जिनका प्रभाव पड़ता है, ऐसे मनि. व्रती अथवा असंयमी विद्वान मनोज्ञ कहलाते हैं। इनके समक्ष आगत विपत्तियों को दूर करना, आवश्यकतानुसार यथायोग्य सेवा करना वैयावृत्य तप कहलाता है। 4. स्वाध्याय - शास्त्रों का पठन (वाचना) करना, अपने संशय को दूर करने के लिये गुरुजनों से पूछना (पृच्छना), पठित ग्रन्थों के अर्थ का मन में चिन्तन 218 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org