________________ नहीं है, वह प्रत्येक व्यक्ति की सामर्थ्य पर आधारित है। फिर भी जैनदर्शन की मान्यता है कि इसमें वृद्धि होना ही श्रेष्ठ है। जिस प्रकार सम्मेद शिखर का दर्शनाभिलाषी साधु धीरे-धीरे विहार करते हुए लक्ष्य के निकट आने पर और अधिक दृढ़ता के साथ अधिकाधिक विहार करता है तथा शीघ्रातिशीघ्र पार्श्वनाथ की टोंक पर पहुँच कर उल्लासित होता है, उसी प्रकार निरन्तर तप में स्थित व्यक्ति मोक्षप्राप्ति होने पर ही तप की पूर्णता जानता है। जैसे-जैसे उसके परिणाम और अधिक विशुद्ध होते जाते हैं वैसे-वैसे वह और अधिक तप करने में तल्लीन होता जाता है। सम्यक् तप की आराधना निश्चित रूप से करना ही चाहिये, क्योंकि इसके बिना निधत्ति और निकाचित कर्मों से मुक्ति हो पाना सम्भव नहीं है। उन निधत्ति और निकाचित का स्वरूप भी बताते हैं - निधत्ति - जिन कर्मों में संक्रमण और उदीरणा का अभाव होता है, वे निधत्ति कर्म कहलाते हैं। संक्रमण अर्थात् एक कर्म प्रकृति का दूसरी कर्म प्रकृति में बदल जाना। जैसे - असाता वेदनीय का साता वेदनीय में बदल जाना और उदीरणा अर्थात् उदय से पहले अधिक द्रव्य का उदय में आ जाना। निकाचित - जिसमें संक्रमण, उदीरणा, उत्कर्षण और अपकर्षण का अभाव होता है वह निकाचित कर्म कहलाता है। अर्थात् कर्म जैसा बंधा है वैसा ही उदय में आता है। उत्कर्षण अर्थात् कर्म स्थिति का बढ़ना और अपकर्षण अर्थात् कर्मस्थिति का घटना। सम्यक् तप आराधना की महिमा का वर्णन करते हुए आचार्य लिखते हैं कि - जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कथित बाह्याभ्यन्तर दो प्रकार (6-6 प्रकार) के तपश्चरण में अपनी शक्ति के अनुसार जो भक्तिपूर्वक प्रवृत्ति करता है, चारित्र को निर्मल करने वाले तपश्चरण में उद्यमी रहता है, वह शीघ्र ही दुष्ट कर्मों के ज का क्षय करके समीचीन रूप से की गई परम ब्रह्म की आराधना से समुत्पन्न चिदानन्द को भोगने वाले पद को प्राप्त करता है। तप के मुख्य रूप से दो भेद होते हैं - बहिरंग तप और अन्तरंग तप। प्रत्येक के 6-6 भेद हैं। उनमें से जो बाह्य में दिखाई पड़ते हैं वे बहिरंग तप हैं। उसके 6 भेद इस प्रकार हैं - 215 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org