________________ बकरा, ब्रह्मा और जिसमें पुनः उत्पन्न होने की शक्ति नहीं है ऐसा शालि धान्य आदि अनेक अर्थ हैं। इसी प्रकार जितने मत-मतान्तर प्रचलित हुए हैं, वे अर्थ की विपरीतता से ही हुए हैं। 3. उभयाचार - शुद्ध उच्चारण सहित शुद्ध अर्थ का जानना उभयाचार कहलाता है। 4. कालाचार - चारों संध्याओं के अर्थात् सूर्योदय के दो घड़ी (48 मिनट) पूर्व और पश्चात्, मध्याह्न 12 बजे के दो घड़ी पूर्व और पश्चात्, सूर्यास्त के दो घड़ी पूर्व और पश्चात् और अर्धरात्रि के दो घड़ी पूर्व और पश्चात्, दिग्दाह, उल्कापात, वज्रपात, इन्द्रधनुष, सूर्य-चन्द्र ग्रहण, तूफान, भूकम्प आदि प्राकृतिक उत्पातों के समय में सिद्धान्त ग्रन्थों का स्वाध्याय करना वर्जित (निषिद्ध) है, परन्तु स्तोत्र, आराधना और धार्मिक कथा आदि के ग्रन्थों का स्वाध्याय किया जाता है। यही कालाचार कहलाता है। 5. विनयाचार - शास्त्रों का पठन-पाठन हाथ-पैर धोकर चौकी बिछाकर शुद्ध स्थान में पर्यंकासन में बैठकर श्रुत भक्ति और आचार्य भक्ति बोलकर नमस्कार पूर्वक कार्योत्सर्ग करके स्वाध्याय करना विनयाचार कहलाता है। लेटकर या पैर फैलाकर स्वाध्याय करना वर्जित है। लेटकर या पैर फैलाकर बैठने से रीढ़ की हड्डी सीधी नहीं होने पर आलस्य बढ़ता है और नींद आने लगती है, जिससे स्वाध्याय में शिथिलता होती है। ऐसा होने पर शास्त्र एवं गुरु के प्रति विनयाचार का पालन नहीं हो पाता है। 6. बहुमानाचार - बार-बार नमस्कार करके अति भक्ति से शास्त्र स्वाध्याय करना बहुमानाचार है। विनय सामान्य है वह वाचनिक और कायिक भी हो सकती है, परन्तु बहुमान विशेष मानसिक अनुराग है। शास्त्र स्वाध्याय करते हुए गर्व महसूस करना कि मैं वीतरागी सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेव की वाणी को श्रवण अथवा वाचन कर रहा हूँ। यदि गुरु अथवा शास्त्र के प्रति श्रद्धा न हो, आदर भाव न हो तो हमेशा उनमें शंकास्पद स्थिति बनी रहती है। 7. उपधानाचार - चित्त की स्थिरता के साथ में शास्त्र पठन के प्रारम्भ में कुछ नियम धारण करके हृदय में अर्थ की अवधारणा करना उपधानाचार कहलाता है। चित्त की एकाग्रता के बिना अध्ययन करने से सम्पूर्ण अर्थ अध्ययन व्यर्थ हो जाता है, क्योंकि 211 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org