________________ करना तप है, क्योंकि पाँच इन्द्रियों की अभिलाषा (इच्छा) का परित्याग करना तप है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों का त्याग किये बिना चारित्र की आराधना नहीं होती, अत: इन्द्रियनिरोध रूप तप, चारित्र में गर्भित हो जाता है। जिस प्रकार आत्मा में रमण करना निश्चय चारित्र है, उसी प्रकार निज शद्धात्मा में तपना तप है। जब आत्मा उस परमात्मा का श्रद्धान करता है तब दर्शन रूप होता है। जब उसे जानता है तब ज्ञानरूप होता है, जब उसमें रमण करता है तब चारित्र रूप होता है और जब अन्य भोगों की इच्छा से च्युत होता है तब तप रूप होता है। इस प्रकार निश्चय आराधना का स्वरूप जानकर साधक को संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर मात्र शुद्ध आत्मस्वरूप की ही आराधना करना चाहिये, ऐसा उक्त कथन का तात्पर्य है। व्यवहार आराधना के भेद व्यवहार आराधना के जो चार भेद सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यग्तप निरूपित किये गये हैं, उनके स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए आचार्य कहते हैं सम्यग्दर्शन आराधना - सम्यग्दर्शन आराधना का स्वरूप कहते हैं भावाणं सद्दहणं कीरइ जं सुत्तउत्तजुत्तीहिं। आराहणा हु भणिया सम्मत्ते सा मुणिं देहि।' अर्थात् सूत्र (जिनेन्द्र देव के वचन) में कही गई युक्तियों के द्वारा जीवादि सात तत्त्वों का श्रद्धान करना मुनियों के इन्द्र अर्थात् केवली अथवा गणधरदेव ने सम्यग्दर्शन विषयक आराधना कहा है। यहाँ आचार्य का आशय यह है कि यद्यपि भाव, पदार्थ, तत्त्व ये एकार्थवाची शब्द हैं फिर भी शब्दार्थ की अपेक्षा कुछ अन्तर भी है। स्वकीय-स्वकीय गुण-पर्यायों में जो होते हैं अथवा रहते हैं उन जीवादि को भाव कहते हैं। जो ज्ञान के द्वारा जाने हैं, ज्ञान के विषय हैं, ज्ञानगम्य हैं वे अर्थ या पदार्थ कहलाते हैं। तत्त्व शब्द सामान्यभाववाची है, जिसका अर्थ है - जिस-जिस प्रकार से जीवादि पदार्थ व्यवस्थित हैं उनका उसी प्रकार से होना अथवा परिणमन करना तत्त्व कहलाता है। तत्त्व सात हैं - जीव, अजीव, आराधनासार गा. 4 209 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org