________________ of परिच्छेद : लेश्या एवं गुणस्थान कषायों से अनुरंजित जीव के योगों की प्रवृत्ति को भाव लेश्या कहते हैं। गों की तीव्रता और मंदता से लेश्या का ज्ञान किया जा सकता है। आचार्य परिभाषित रा लिखते हैं कि लिम्पति इति लेश्या अर्थात् जो आत्मा को कर्मों से लीपता है लेश्या कहते हैं। कषायों की मंदता से शुभ लेश्या और कषायों की तीव्रता से अशुभ या जीवों में संभव हैं। इनमें शुभ, शुभतर, शुभतम और अशुभ, अशुभतर, अशुभतम भेद से लेश्या 6 बताई गई हैं जिनके नाम हैं- कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्य, ला लेश्यायें पहले गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान तक होती है। कृष्ण, नील, कापोत ले से चौथें गुणस्थान तक होती है। पीत, पद्य लेश्यायें पहले गुणस्थान से सातवें मान तक होती है और शक्ल लेश्या पहले से तेरहवें गणस्थान तक होती है। चौदहवें गणस्थान में योग नहीं होने से लेश्या नहीं है। राग और कषाय का अभाव हो जाने से भक्त जीवों के लेश्या नहीं होती है। पूर्व प्रज्ञापन नय की अपेक्षा से 11,12,13 वें स्थान में भाव लेश्या औदयिक है। देव और नारकियों में द्रव्य तथा भाव लेश्या समान होती है परन्तु मनुष्य और तिर्यंचों में समानता नहीं हैं। द्रव्य लेश्या आय पर्यन्त एक जैसी रहती है परन्तु भाव लेश्या जीवों के परिणामों के अनुसार बदलती रहती है। जैन आगम और सिद्धान्त ग्रन्थों ने गणस्थान के माध्यम से तीन लोक में व्याप्त समस्त जीवों का वर्गीकरण करके अध्ययन करने का मार्ग पर्याप्त रूप से प्रशस्त किया है। गणस्थान पद्धति से जीवों के भावों का ज्ञान करना सरल हो गया है। गुणस्थानों में गति आदि की अपेक्षा से संक्षिप्त वर्णन करने से गुणस्थान का स्वरूप अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है। गति विमर्श - नरकगति में तथा देवगति में प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान तक होते हैं। तिर्यञ्चगति में प्रथम से पाँच गुणस्थान तक और मनुष्यगति में एक से चौदह गुणस्थान सम्भव हैं। इन्द्रिय विमर्श - एक से लेकर चार इन्द्रिय जीव मात्र प्रथम गुणस्थान में सम्भव हैं। पञ्चेन्द्रिय जीवों में सम्पूर्ण गुणस्थान सम्भव हैं। 197 Jain Education Interational www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only