________________ द्वितीय परिच्छेद : भाव एवं गुणस्थान संसार में समस्त पदार्थों से भिन्न स्वभाव वाला जीव ही भावों से सहित है, अन्य अजीवादि पदार्थ के भाव नहीं होते हैं, इसलिये भावों को जीवों के असाधारण भाव कहा गया है। जो जीव राग-द्वेष, मोह आदि समस्त विकारों से रहित हैं और समस्त कर्मों से रहित हैं वे सिद्ध अथवा मुक्त जीव हैं तथा जो जीव सदा काल चारों गतियों की पर्यायों में परिणत होते रहते हैं, वे संसारी जीव हैं। ये सभी जीव अपने-अपने परिणामों से पापोपार्जन, पुण्योपार्जन और मोक्ष की प्राप्ति करता है। अतः कहा जा सकता है कि यह जीव अशुभ, शुभ और शुद्ध भावों को प्राप्त होता है। इन तीनों भावों में शुद्ध भाव ही धारण करने योग्य है, शेष शुभ और अशुभ भाव दोनों ही त्याज्य हैं। शुद्ध भावों को छोड़कर जो शेष शुभ और अशुभ भाव हैं, वे दोनों ही भाव पुण्य और पाप को उत्पन्न करने वाले हैं तथा वे दोनों ही औदायिक आदि पापों भावों से मिलकर गुणस्थानों के आश्रय से रहते हैं। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदायिक और पारिणामिक भाव मुख्य हैं। इन्हीं में जब अशुभ, शुभ और शुद्ध भाव मिल जाते हैं, तब गुणस्थानों की रचना बन जाती है। इन भावों की वे पर्यायें ही चौदह गुणस्थानों के नाम से कही जाती हैं। अब बताते हैं कि कौन सा भाव कौन से गणस्थान तक होते हैं. यह दोनों में सम्बन्ध प्ररूपित करता है। सामान्य रूप से औपशमिक भाव 4-11 गुणस्थान तक होता है। उसमें भी औपशमिक सम्यक्त्व 4-11 तथा औपशमिक चारित्र 8-11 गुणस्थान तक होता है। क्षायिक भाव 4-14 गुणस्थान और सिद्ध तक होता है। उनमें से क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग और क्षायिक वीर्य 13-14 गुणस्थान और सिद्धावस्था में भी होते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व 4-14 गुणस्थान और सिद्धावस्था में होता है एवं क्षायिक चारित्र 8-14 गणस्थान तक होता है। इसमें विशेष यह है कि 11वें गुणस्थान में संभव नहीं है, क्योंकि इसमें औपशमिक भाव ही संभव है। अतः इस गुणस्थान को छोड़कर सिद्धावस्था तक होता है। क्षायोपशमिक भाव 1-12 गुणस्थान तक होता है, जिसमें कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभङ्गावधिज्ञान 1-2 गुणस्थान तक होता है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान 1-12 गणस्थान तक होते हैं। मन:पर्ययज्ञान 6-12 गणस्थान तक होता है। पाँच लब्धियाँ 194 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org