________________ आचार्य कहते हैं कि - शरीर नामकर्मोदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, स्योंकि वह भी कर्म के बन्ध में निमित्त होता है। इस कारण कषाय के नष्ट हो जाने पर बँकि योग रहता है, इसलिये क्षीणकषाय जीवों के लेश्या मानने में कोई विरोध नहीं आता। यहाँ कोई शङ्का करता है कि केवली में बुद्धिपूर्वक सावधयोग की निवृत्ति तो पाई नहीं जाती है इसलिये उनमें संयम का अभाव हो जाता है। इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि - चार घातिया कर्मों के विनाश करने की अपेक्षा और समय-समय में असंख्यातगुणी श्रेणी रूप से कर्म निर्जरा करने की अपेक्षा समस्त पापक्रिया के निरोधस्वरूप पारिणामिक गुण प्रकट हो जाता है इसलिये इस अपेक्षा से वहाँ संयम का उपचार किया जाता है। अथवा वहाँ प्रवृत्ति के अभाव की अपेक्षा मुख्य संयम इस गुणस्थान में सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती नामक तृतीय शुक्ल ध्यान होता है। यहाँ कोई शंका करता है कि केवली के मन का निरोध तो बनता नहीं है तब फिर उनके ध्यान कैसे बन सकता है? क्योंकि मन का निरोध किये बिना ध्यान नहीं बन सकता है। इसका परिहार करते हुए आचार्य कहते हैं कि - यहाँ उपचार से योग का अर्थ चिन्ता है। उसका एकाग्र रूप से निरोध अर्थात् विनाश जिस ध्यान में किया जाता है वही ध्यान यहाँ ग्रहण किया गया है। इसका आशय यह है कि - एकाग्ररूप से जीव के चिन्ता का निरोध अर्थात् परिस्पन्द का अभाव होना ही ध्यान है। इस दृष्टि से यहाँ ध्यान की संज्ञा दी गई है। तो फिर केवली क्या ध्यान करते हैं? तो बताते हैं कि - अनिन्द्रिय और इन्द्रियातीत हुआ यह जीव सर्वबाधा रहित और सम्पूर्ण आत्मा में परिपूर्ण सौख्य तथा ज्ञान से समृद्ध रहता हुआ परम सौख्य का ध्यान करता है।' इस गुणस्थान के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में यदि अघातिया कर्मों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त से ज्यादा होती है तो वह केवली, केवली समुद्घात करते हैं। इस समुद्घात के ध. 1/124 भा. सं. गा. 668 ध. 13/26 प्र. सा. गा. 198 180 Jain Education Interational For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org