________________ दारा तीन अघातिया कर्मों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त कर देते हैं। आचार्य अकलंक स्वामी समुद्घात की परिभाषा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि - जैसे मदिरा में फेन आकर शान्त हो जाता है उसी तरह देहस्थ आत्मप्रदेश बाहर निकलकर फिर शरीर में समा जाते हैं उसे समुद्घात कहते हैं।' समुद्घात 7 होते हैं। उनमें से प्रसंगवशात् केवलीसमुद्घात के स्वरूप को व्यक्त करते हुए आचार्य वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि - दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण रूप जीवप्रदेशों की अवस्था को केवलीसमुद्घात कहते हैं। केवली समदघात के चार भेद होते हैं जैसा कि आचार्य वीरसेन स्वामी ने केवलीसमुद्घात के स्वरूप वर्णन में उल्लेख भी किया है-दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण। इनका स्वरूप इस प्रकार है दण्ङ - जिसकी अपने विष्कम्भ से कुछ अधिक तिगुणी परिधि है ऐसे पूर्व शरीर के बाहल्यरूप दण्डाकार से केवली के जीव प्रदेशों का कुछ कम चौदह राजु उत्सेधरूप फैलना दण्ड समुद्घात कहलाता है। इस अवस्था में जीव के प्रदेश डण्डे के समान लम्बे आकार में त्रस नाड़ी में फैल जाते हैं। ये कुछ कम चौदह राजु में फैलते हैं इसमें कुछ कम का अर्थ है - जो चारों तरफ तीन वलय हैं वे नीचे और ऊपर इन जीव के प्रदेशों से इस अवस्था में रिक्त रहते हैं। कपाट - दण्ड समुद्घात में बताये गये बाहल्य और आयाम के द्वारा पूर्व-पश्चिम में वातवलय से रहित सम्पूर्ण क्षेत्र के व्याप्त करने का नाम कपाट समुद्घात है। यहाँ यह आशय है कि अब आत्मा के प्रदेश कपाट अर्थात् दरवाजे के समान पूर्व और पश्चिम में खुल जाते हैं अर्थात् फैल जाते हैं। प्रतर - केवली भगवान् के जीव प्रदेशों का वातवलय से रुके हुए क्षेत्र को छोड़कर सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होने का नाम प्रतर समुद्घात है। यहाँ आचार्य का तात्पर्य यह है कि जो निस्कुट आदि क्षेत्र शेष रह गया था, उसमें वातवलय को छोडकर आत्मप्रदेश फैल जाते हैं। रा. वा. 1/20/12 ध. 13/2/61/300/9 ध. 4/1,8,2/28/8 181 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org