________________ 8. अर्थसम्यक्त्व - अंगबाह्य आगमों के पढ़ने के बिना भी उनमें प्रतिपादित किसी पदार्थ के निमित्त से जो अर्थश्रद्धान होता है उसे अर्थसम्क्यत्व कहते हैं। अवगाढ़सम्यक्त्व - अंगों के साथ अंगबाह्य श्रृत में जो अतिदृढ श्रद्धान होता है उसे अवगाढ़सम्यक्त्व कहते हैं। 10. परमावगाढ़सम्यक्त्व - परमावधि या केवलज्ञान दर्शन से प्रकाशित जीवादि पदार्थ विषयक प्रकाश से जिनकी आत्मा विशुद्धि को प्राप्त होती है उसे परमावगाढ़सम्यक्त्व कहते हैं। इसप्रकार सम्यग्दर्शन के एक, दो, तीन, दस आदि भेद आचार्यों ने स्वीकार किये हैं। राजवार्तिककार लिखते हैं कि शब्दों की अपेक्षा संख्यात प्रकार का है, श्रद्धान करने वालों की अपेक्षा असंख्यात प्रकार का है, श्रद्धान करने वालों की अपेक्षा असंख्यात प्रकार का है और श्रद्धान करने योग्य पदार्थों एवं अध्यवसायों की अपेक्षा अनन्त प्रकार का है। अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान की विशेषतायें * सम्यग्दर्शन से सहित एवं व्रतों से रहित जीव अविरत सम्यक्त्वी कहलाते हैं। * इस गुणस्थान में स्थित जीव सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के उपासक, तत्त्वश्रद्धानी एवं भेद विज्ञानी होते हैं। * अविरत सम्यक्त्वी जीव 8 अंगों का पालन करते हुए एवं शंकादि 25 दोषों से रहित होता है। * अविरत सम्यक्त्वी संसार, शरीर, भोगों से उदासीन अनीति, अन्याय एवं अभक्ष्य का त्यागी होता है। * इस गुणस्थान में सम्यक्त्वाचरण चारित्र होता है। * जिसके अंतरंग में प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य होते हैं वह सराग सम्यक्त्वी कहलाता है। रा. वा. 1/7/14, द. पा. टी. 12/12 140 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org