________________ " जीव देशविरत या संयतासंयत कहलाते हैं।' संयमासंयम के स्वरूप को अतिसंक्षेप में व्यक्त करते हुए आचार्य अकलंक स्वामी लिखते हैं कि - क्षायोपशमिक विरताविरत परिणाम को संयमासंयम कहते हैं। अथवा अनात्यन्तिकी अर्थात् आंशिक विरक्तता को संयमासंयम कहते हैं। अन्तरंग निमित्त रूप से संयतासंयत का स्वरूप स्पष्ट करते हुए आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी लिखते हैं कि - प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय और अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अनुदय से सकलसंयम नहीं होता, किन्तु स्तोकव्रत अर्थात् अणुव्रत होते हैं। इसलिये देशव्रत या देशसंयम रूप पञ्चम गुणस्थान होता है।' व अन्य आचार्यों की भाँति आचार्य देवसेन स्वामी भी यह स्वीकार करते हैं कि - जो विरतावितर पञ्चम गुणस्थानवी जीव होता है वह श्रावक के अष्टमूलगुण और बारह व्रतों (पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत) इनका पालन तो वह नियमपूर्वक करता ही है। श्रावक के अष्टमूलगुणों में मद्य, मांस, मधु इन तीन मकार का त्याग और पाँच उदुम्बर फल (बड़, पीपल, पाकर, ऊमर, कठूमर) का त्याग करना समायोजित है। यहाँ कोई शंका करता है कि एक जीव में एक साथ संयम भाव और असंयम भाव कैसे रह सकता है, जबकि ये दोनों भाव परस्पर में विरोधी हैं? इस शंका का समाधान करते हुए धवलाकार आचार्य वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि - विरोध दो प्रकार का होता है; परस्पर परिहारलक्षण विरोध प्रथम और सहानावस्था लक्षण विरोध द्वितीय। इनमें से प्रथम परस्पर परिहारलक्षण विरोध की अपेक्षा कई गुण एक दूसरे का विरोध न करते हुए अनेकान्तिक रूप से एक साथ रह सकते हैं, क्योंकि संयम और असंयम इन दोनों भावों की उत्पत्ति का कारण भिन्न-भिन्न है। संयमभाव की उत्पत्ति का कारण त्रसहिंसा से विरतिभाव है और असंयम भाव की उत्पत्ति का कारण स्थावर हिंसा से अविरति भाव है। अतः संयम और असंयम भाव के एक साथ रहने में कोई भी आपत्ति नहीं है, क्योंकि यदि एक दुसरे का परिहार करके गुणों का अस्तित्व न माना जाये तो उनके स्वरूप की हानि का प्रसंग उपस्थित होता है जो किसी के लिये भी इष्ट नहीं है।' पं. सं. प्रा. 1/135, ध. 1/1, गा. 192, गो. जी. गा. 476 गो. जी. गा. 30 भा. सं. गा. 352 ध. 1/173 144 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org