________________ 133 सागर की देवायु का बंध सप्तम गुणस्थान में ही होता है। * आहारक समुद्घात, आहारक काय योग, आहारक मिश्र अवस्था, शुभ-अशुभ तैजस शरीर इसी गुणस्थान में ही होते हैं। * सम्यक्त्व की अपेक्षा यहाँ तीनों सम्यक्त्व संभव हैं एवं चारित्र की अपेक्षा क्षायोपशमिक चारित्र होता है। * सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि चारित्र का प्रारम्भ इसी गुणस्थान से होता है। * इस गुणस्थान में प्रमत्त शब्द अन्त दीपक है एवं संयत शब्द आदि दीपक है। * इस गुणस्थान में मरण करने वाले मुनि सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त उत्पन्न हो सकते हैं। * आचार्य, उपाध्याय, साधु, श्रुतकेवली, गणधर इत्यादि मुनि-ज्ञानी जन इसी गुणस्थान से प्रारम्भ माने जाते हैं। * वर्द्धमान चारित्री, सर्वावधिज्ञानी, परमावधिज्ञानी, विपुलमती मन:पर्ययज्ञानी, इस गुणस्थान से नीचे नहीं गिरते। * इस गुणस्थान में जघन्य ज्ञान आचार वस्तु प्रमाण। अष्टप्रवचन मात्र प्रमाण एवं उत्कृष्ट सम्पूर्ण द्वादशांग का ज्ञान होता है। * छठवाँ गुणस्थान मनुष्य गति में ही संभव है। * इस गुणस्थान में जीवों की उत्कृष्ट संख्या 5 करोड़ 93 लाख 98 हजार 206 है तथा जघन्य कुछ कम लगा सकते हैं। * सप्तम गुणस्थान में जीवों की संख्या इस गुणस्थान से आधी जाननी चाहिये। * नाना जीवों की अपेक्षा इस गुणस्थान में पाँचों भाव संभव हैं एवं एक जीव की अपेक्षा 3 अथवा 4 भाव संभव हैं। * कोई मिथ्यादृष्टि मुनि उपशम सम्यक्त्व एवं अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण कषायों का अनुदय एक साथ प्राप्त करे तो वह जीव अप्रमत्त अवस्था में आ 153 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org