________________ अवस्था प्राप्त करने वाले साधक सातिशय अप्रमत्त कहलाते हैं। इस गुणस्थान का 'अधः प्रवत्तिकरण' भी नाम है। इस अवस्था में ये उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी पर नियम से आरोहण करेंगे ही। आत्म विशुद्धि के इस सोपान में समसमयवर्ती तथा विषमसमयवर्ती जीवों के परिणाम समान तथा असमान दोनों प्रकार के हो सकते हैं। यहाँ आचार्य स्पष्ट करते हैं कि ऊपर के समयवर्ती जीवों के परिणाम और नीचे के समयवर्ती जीवों के परिणाम जहाँ सदृश होना सम्भव है, विशुद्धि और संख्या की अपेक्षा समान हो सकते हैं। उसको अध: प्रवृत्तकरण कहते हैं।' अधः अर्थात् नीचे, प्रवृत्त अर्थात् होना, अर्थात् आगे के समय में स्थित जीव के परिणाम जो पीछे हैं उससे मिलना। उदाहरणार्थ - जैसे किसी मुनिराज के अधः प्रवृत्त में प्रवेश किये हुए दो समय हो गये हैं और किसी दूसरे मनिराज को चार समय हो गये हैं तो उन दोनों मुनिराजों के परिणाम समान भी हो सकते हैं और असमान भी हो सकते हैं तथा दस मुनिराज एक साथ अधः प्रवृत्त में प्रविष्ट हुए हैं तो भी उन सबके परिणाम समान असमान दोनों तरह से हो सकते हैं। इस अधः प्रवृत्तकरण में चार कार्य होते हैं। प्रतिसमय अनन्तगुणी विशद्धि बढ़ती जाती है, प्रशस्त कर्मों का अनुभाग बढ़ता है, अप्रशस्त कर्मों का अनुभाग घटता जाता है और वर्तमान में बंध रहे कर्मों की स्थिति घटा-घटा के बाँधता है। यह अवस्था पूर्णरूप से ध्यानावस्था है तथा इसमें बाह्यक्रिया कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होती है। अप्रमत्त-विरत गुणस्थान की विशेषतायें * जब संज्वलन एवं नव नोकषायों का मन्द उदय होता है उस समय संयम में मल उत्पन्न करने वाला प्रमाद नहीं होता है, उस समय जीव को अप्रमत्त संयती कहते हैं। इस गुणस्थान में बुद्धिपूर्वक क्रियाओं की निवृत्ति हो जाती है। * इस गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त एवं जघन्य काल सामान्य से अन्तर्मुहुर्त है, परन्तु मरण की अपेक्षा एक समय है। * छठवें गुणस्थान की अपेक्षा इस गुणस्थान का काल आधा होता है। ल. सा. गा. 35, गो. जी. गा. 48 157 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org