________________ इस गुणस्थान के आचार्यों ने दो भेद बताये हैं-1. स्वस्थान अप्रमत्तविरत तथा 2. मातिशय अप्रमत्तविरत। अप्रमत्तविरत के भेदों में स्वस्थान अप्रमत्तविरत का स्वरूप उल्लिखित करते हुए आचार्य लिखते हैं कि णट्ठासेसपमाओ वयगुणसीलोलिमंडिओ णाणी। अणुवसमओ अखवओ झाणणिलीणो हु अपमत्तो सो॥' यही गाथा कई आचार्यों ने ऐसी ही अपने ग्रन्थों में उद्धत की है। इसमें आचार्य करते हैं कि - जिस संयत के सम्पूर्ण व्यक्त और अव्यक्त प्रमाद नष्ट हो चुके हैं और जो समग्र ही महाव्रत, अट्ठाईस मूलगुण तथा शील से युक्त हैं और शरीर आत्मा के विज्ञान में एवं मोक्ष के कारणभत ध्यान में निरन्तर लीन रहता है. ऐसा अप्रमत्त जब तक उपशमक या क्षपक श्रेणी पर आरोहण नहीं करता तब तक उसको स्वस्थान अप्रमत्तविरत कहते हैं। इस अवस्था में जब वह श्रेणी आरोहण नहीं कर रहा होता है तब वह 6वें 7वें गुणस्थानों में झूलता रहता है, क्योंकि इन दोनों का ही काल अन्तर्महूर्त होता है और 6वें गुणस्थान की अपेक्षा 7वें गुणस्थान का काल आधा होता है। ऐसे ही आगे-आगे के गुणस्थानों का काल पहले वाले गुणस्थान की अपेक्षा आधा-आधा होता जाता है। इस प्रकार 6वें-7वें गुणस्थान में डोलायमान रहने वाली अवस्था को कुछ विज्ञजन इस प्रकार समझाने का प्रयास करते हैं कि - जब मुनिराज आहार का शोधन कर रहे हैं तब 7वाँ गुणस्थान तथा ग्रहण करते समय 6वाँ गुणस्थान अथवा जब प्रवचन दे रहे हैं तब 6वाँ तथा विचार करते समय 7वाँ गुणस्थान होता है। इसी प्रकार अन्य क्रियाओं में भी लगाते हैं। पर परन्तु यह तथ्य विचारपूर्ण सिद्ध नहीं होता, क्योंकि इन दोनों गणस्थानों का समय अत्यन्त सूक्ष्म है; जिस कारण इनका अन्तर स्पष्ट नहीं होता है। उपर्युक्त कथन स्वीकार न करने पर मुनिराज जब शयन करेंगे तब भी उनका छठा गुणस्थान मानना पड़ेगा, परन्तु छठा गुणस्थान एक, दो, चार या छह घण्टे तक नहीं हो सकता है। अत: इस सूक्ष्म विषय को जानना सामान्य मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान के धारियों के लिये संभव नहीं है। यह डोलायमान होने की क्रिया काक-नेत्र के समान है जो नित्य चञ्चल रहता है पं. सं. प्रा. 1/16, ध. 1, गा. 115, गो. जी. का. 46, भा. सं. गा. 614 155 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org