________________ * कोई भी मिथ्यादृष्टि जीव 12 कषायों का अनुदय करके एवं मिथ्यात्वादि तीन का उपशम करके अप्रमत्तविरत गुणस्थान को प्राप्त हो सकता है। * कोई भी अविरत सम्यक्त्वी अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण के अनुदय से इस गुणस्थान को पाता है। कोई भी संयमासंयमी प्रत्याख्यानावरण कषाय के अनुदय से अप्रमत्त विरत गुणस्थान को प्राप्त हो सकता है। * उपशम श्रेणी से गिरने वाला अष्टम गुणस्थानवी जीव नियम से सातवें गुणस्थान को प्राप्त होता है, यदि मरण न करे तो। * देवायु का आस्रव इसी गुणस्थान तक होता है, विशेषता यह है कि सातिशय अप्रमत्ती नहीं करता है। * आहारक शरीर एवं अंगोपांग के बंध की शुरुआत इसी गुणस्थान से होती है। * क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी जीव इसी गुणस्थान तक पाये जाते हैं एवं क्षायोपशमिक चारित्र भी। * यदि रहे तो, सम्यक्त्व प्रकृति का उदय इसी गुणस्थान तक रहता है, आगे नहीं। * तीर्थङ्कर प्रकृति का प्रस्थापक सप्तम गुणस्थानवर्ती भी हो सकता है। * किसी भी ऋद्धि के प्रयोग की शुरुआत अप्रमत्ती जीव नहीं करता, लेकिन प्रयोग . के समय यह गुणस्थान संभव है। * मनः पर्यय ज्ञान की उत्पत्ति अप्रमत्त गुणस्थान में ही होती है। * सप्तम गुणस्थान में शुभोपयोग एवं शुद्धोपयोग दोनों संभव हैं, अर्थात् प्रवृत्ति की अपेक्षा शुभोपयोग एवं निवृत्ति की अपेक्षा शुद्धोपयोग होता है। * पीत, पद्म लेश्या इसी गुणस्थान के स्वस्थान अवस्था तक होती है। . * निश्चय रत्नत्रय, वीतराग चारित्र, निर्विकल्प समाधि, अपने स्वरूप में स्थिरता एवं अतीन्द्रिय सुख का प्रारम्भ इसी गुणस्थान से होता है। * इस गुणस्थान के दो भेद होते हैं- (प) स्वस्थान अप्रमत्त विरत (पप) सातिशय अप्रमत्त विरत 158 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org