________________ यहाँ आचार्यों का तात्पर्य है कि - जिस प्रकार शरद् ऋतु में कीचड़ सब तालाब के नीचे बैठ जाता है तथापि वह वायु आदि का निमित्त पाकर फिर ऊपर आ जाता है। उसी प्रकार आठवें, नवमें, दशमें, ग्यारहवें गुणस्थानों में जिस मोहनीय कर्म का उपशम किया था तथा ग्यारहवें गुणस्थान में आकर समस्त मोहनीय कर्म का उपशम कर दिया था वही मोहनीय कर्म इस ग्यारहवें गुणस्थान के अन्त समय में कारण पाकर उदय में आ जाता है। जब मोहनीय कर्म का उदय आ जाता है तब वे मुनि ग्यारहवें गुणस्थान से गिरकर सातवें आदि गुणस्थानों में आ जाते हैं। 1 इस गुणस्थान के पतन के दो कारण आचार्यों ने निर्दिष्ट किये हैं जो इस प्रकार Prop.. हैं-1. कालक्षय 2. भवक्षय कालक्षय - इस गुणस्थान की अवधि समाप्त हो जाने पर इस गुणस्थान का पतन हो जाता है। इसमें 11वें से गिरकर 10वें, 9वें, 8वें, 7वें, 6वें इस प्रकार क्रम से पतन होता है फिर 6-7वें गुणस्थान में बने रह सकते हैं। आचार्यों का कहना है कि मिथ्यात्व प्रकृति का उदय हो जाने पर मिथ्यात्व गुणस्थान को भी प्राप्त कर सकते हैं।' भवक्षय - 11वें गुणस्थान में ही किसी मुनिराज का मरण हो जाय तो वह मुनिराज 11वें / से सीधे चतुर्थ गुणस्थान में आ जाते हैं। इस गुणस्थान में फिसलन होने के कारण इस से जीव गिरता ही है, क्योंकि जो कषायें उपशम कर देने से दब गई थीं वे पुनः उदय में आ जाती हैं और मुनिराज इस गुणस्थान से पतन को प्राप्त हो जाते हैं। इसी कारण इससे अपर को गमन नहीं हो पाता। इस गुणस्थान में चारित्र मोह की अपेक्षा औपशमिक भाव है और सम्यक्त्व की अपेक्षा (औपशमिक और क्षायिक भाव दोनों होते हैं। इस गुणस्थान में जो 'वीतराग' पद है वह आदि दीपक है। इसका अभिप्राय यह है कि इस गुणस्थान से ऊपर सभी वीतराग ही पाये जाते हैं तथा इससे नीचे सभी सराग अवस्था में ही पाये जाते हैं। यह गुणस्थान उपशम श्रेणी की चरम अवस्था है। भावसंग्रह गाथा 656 ध. 1/189 168 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org