________________ मोह दो प्रकार का है - द्रव्यमोह और भावमोह। प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेश के भेद से द्रव्यमोह चार प्रकार का है। राग-द्वेष के भेद से भावमोह दो प्रकार का है। मोहनीय कर्मोदय के चित्त में नाना प्रकार की तरंगें उठती थीं जिससे समचित्त (तरंगों रहित चित्, निर्मलचित्त, शान्तचित्त) का अभाव था, किन्तु मोह के नष्ट हो जाने पर तरंगों का उठना समाप्त हो गया है। अतः समचित्त हो गया। यहाँ जो स्फटिक मणि के निर्मल भाजन में रखे जल का दृष्टान्त दिया है। इस दृष्टान्त से यह सिद्ध किया गया है कि - कीचड़ या मिट्टी की सत्ता का अभाव हो जाने से जल पुनः मलिन नहीं हो सकेता, उसी प्रकार मोह के सत्त्व का भी नाश हो जाने से चित्त पुनः मलिन नहीं हो सकता, अतः सर्वदा के लिये समचित्त हो गया। .. क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीव प्रथम समय से ही सर्व कर्मों के प्रकृति-स्थिति आदि का अबन्धक हो जाता है। मात्र योग के निमित्त से एकसमयवर्ती सातावेदनीय का ईर्यापथ आस्रव होता है। एक समय अधिक आवली मात्र छद्मस्थकाल के शेष रहने तक तीनों घातिया कर्मों की उदीरणा करता रहता है। इस गुणस्थान के उपान्त्य समय में द्वितीय शुक्ल ध्यान के द्वारा निद्रा और प्रचला का क्षय कर देते हैं। तदनन्तर चरम अर्थात् अन्तिम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण की शेष प्रकृतियों और अन्तराय इनकी सभी प्रकृतियों और कुछ अघातिया कर्मों का भी क्षय करते हैं।' आचार्य वीरसेन स्वामी प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि - क्षीणकषाय हुए जीव के प्रथम समय में अनन्त बादर निगोद मरते हैं। दूसरे समय में विशेष अधिक जीव मरते हैं। इसी प्रकार तीसरे आदिक समयों में भी विशेष अधिक - विशेष अधिक जीव मरते हैं। यह क्रम क्षीणकषाय के प्रथम समय से लेकर आवलि पृथक्त्व काल तक चलता रहता है। इसके बाद इस गुणस्थान के काल में आवलि का संख्यातवाँ भाग काल शेष रहने तक संख्यात भाग अधिक जीव मरते हैं। इसके आगे के लगे हुए समय में असंख्यातगुणे जीव मरते हैं। इस प्रकार क्षीण कषाय के अन्तिम समय तक असंख्यात गुणे जीव मरते हैं। इस गुणस्थान में इन जीवों का मरण किस कारण से होता है तो इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि ध्यान से निगोद जीवों की उत्पत्ति और ज. ध. मूल पृ. 2266, भा. सं. गा. 664 ध. 14/5,6,93/85 171 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org