________________ रातियों में साधनापरक दृष्टि' नाम से है, उसमें किया जायेगा। अतएव यहाँ इनका संक्षेप रूप से ही गुणस्थान के विषय की उपयोगिता के अनुसार वर्णन कर दिया गया है। आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि इस गुणस्थान में औपशमिक, क्षायिक और भायोपशमिक भाव तीनों होते हैं। ये तीनों भाव सम्यक्त्व की अपेक्षा से होते हैं। मख्यतया संयमासंयम भाव में क्षायोपशमिक भाव होता है। इसी गुणस्थान में आर्तध्यान, रौद्रध्यान और भद्रध्यान ये तीन प्रकार के ध्यान होते हैं। इसका कारण बताते हुए लिखते हैं कि - इस गुणस्थान में इस जीव के बहुत सा आरम्भ होता है बहुत सा ही परिग्रह होता है, इसलिये इसमें धर्म्यध्यान नहीं होता है। आचार्य देवसेन स्वामी ने धर्म्यध्यान की भूमिका स्वरूप भद्रध्यान माना है। भद्रध्यान को जो अच्छी प्रकार से करने लगता है उसके ही धर्म्यध्यान होता है ऐसा मानते हैं।' ___ यह गुणस्थान अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अनुदय अर्थात् उदय में न होने से होता है न कि प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय के कारण, क्योंकि अप्रत्याख्यानावरण कषाय ही देशसंयम अथवा संयमासंयम की विरोधी प्रकृति है इसी के कारण जीव के देशसंयम नहीं होता और जैसे ही इस प्रकृति का अनुदय होता है तभी संयमासंयम प्रकट हो जाता है। संयतासंयत गुणस्थान की विशेषतायें / * इस गुणस्थान में नाना जीवों की अपेक्षा से पाँचों भाव सम्भव हैं, परन्तु एक जीव की अपेक्षा तीन या चार भाव हो सकते हैं। * समस्त प्रतिमाधारी, ऐलक, छुल्लक, छुल्लिका और आर्यिकाओं का पंचम गुणस्थान होता है। * तिर्यञ्च गति में जीव पंचम गुणस्थान तक ही होते हैं। * सम्मूर्च्छन सैनी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों की अपेक्षा इस गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि काल तथा जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। 1- Nm भा. सं. गा. 350 ध. 1/174, रा. वा. 2/5/8 भा. सं. गा. 357 146 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org