________________ रहने के कारण क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में चल, मलिन और अगाढ़ दोष लगते रहते ये दोष इतने ज्यादा प्रभावशाली तो नहीं होते कि सम्यक्त्व को ही नष्ट कर दें परन्तु यक्त्व में दोष उत्पन्न करते रहते हैं, जिस कारण वह पूर्ण निर्मल नहीं रह पाता। वे तीनों दोष आचार्यों ने इस प्रकार कहे हैं - चलदोष - नाना प्रकार की आत्मा के विशेषों में (गणपर्यायों में) जो श्रद्धान, उसमें चलायमान होना चलदोष है। जैसे-अपने द्वारा स्थापित कराई प्रतिमा में 'यह देव मेरे हैं' और अन्य के द्वारा स्थापित प्रतिमा में 'यह अन्य के देव हैं' इस प्रकार देव का भेद करना चलदोष है। जिस प्रकार जल एक होते हुए भी नाना तरंगों में भ्रमण करता है उसी प्रकार सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से श्रद्धान भी भ्रमणरूप चेष्टा करता है। . मलदोष - सम्यक्त्व प्रकृति जो कि मिथ्यात्व का ही एक भाग है, के उदय से वेदक सम्यक्त्व को सम्यक्त्व का माहात्म्य प्राप्त नहीं होता। जैसे-शुद्ध स्वर्ण मल से मलिन हो जाता है, वैसे ही सम्यक्त्व भी सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से शंकादि दोषों से मलिन हो जाता है। उसे ही मल दोष कहा है। अगाढ़दोष - श्रद्धान चञ्चल तो होता है, परन्तु यथार्थ श्रद्धान में स्थित रहता है, अपने स्थान से च्युत नहीं होता है, वह अगाढ़ दोष है। जैसे वृद्ध के हाथ की लकड़ी कांपती तो है, परन्तु हाथ से गिरती नहीं है। और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि - यद्यपि सभी अर्हन्त भगवान् अनन्तशक्ति वाले होने से समान हैं तथापि शान्तिनाथ भगवान् शान्ति के कर्ता हैं और भगवान् पार्श्वनाथ विघ्नों के हर्ता हैं। इस प्रकार वेदकसम्यग्दृष्टि का श्रद्धान शिथिल होने के कारण अगाढ़ दोष युक्त है। - वेदक सम्यक्त्वी तीनों सम्यग्दर्शनों में संसारावस्था का सबसे अधिक काल 66 सागर प्रमाण वाला एकमात्र यही है। यही सम्यक्त्व कर्मक्षपण का हेतु है अर्थात् वेदक सम्यग्दृष्टि के अतिरिक्त अन्य कोई भी जीव (मिथ्यादृष्टि, सासादनेसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि) दर्शन मोहनीय कर्म की क्षपणा नहीं कर सकता। वेदक सम्यग्दृष्टि दर्शन मोहनीय की तीन और अनन्तानुबन्धी चतुक, इन सात प्रकृतियों के अतिरिक्त अन्य कोई कर्मप्रकृतियों के क्षपण का हेतु नहीं है, क्योंकि यह चतुर्थ गुणस्थान गो. जी. का. गा. 25 टीका 138 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org