________________ निश्चय सम्यक्त्व तक पहुँचा जाता है। व्यवहार सम्यक्त्व सीढ़ियों के समान साधन है और निश्चय सम्यक्त्व छत पर पहुँचने के समान साध्यरूप है। व्यवहार सम्यक्त्व, निश्चय सम्यक्त्व का साधक है। सराग सम्यक्त्व एवं वीतराग सम्यक्त्व कई आचार्यों ने सम्यक्त्व के दो भेद रूप में सराग सम्यक्त्व और वीतराग सम्यक्त्व को स्वीकार किया है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति लक्षण वाला सराग सम्यग्दर्शन है और आत्मा की विशुद्धि मात्र वीतराग सम्यग्दर्शन कहलाता है। भगवती आराधनाकार आचार्य दोनों का स्वरूप व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि - प्रशस्तगराग सहित जीवों का सम्यक्त्व सराग सम्यक्त्व है और प्रशस्त एवं अप्रशस्त दोनों प्रकार के राग से रहित क्षीणमोह वीतरागियों का सम्यक्त्व वीतराग सम्यक्त्व कहा गया है। कुछ आचार्य ऐसा मानते हैं कि औपशमिक और क्षपयोपशमिक सम्यक्त्व तो सरागसम्यक्त्व हैं और क्षायिक सम्यक्त्व वीतराग सम्यक्त्व है।' आचार्यों ने सराग सम्यक्त्व और व्यवहार सम्यक्त्व एवं वीतराग सम्यक्त्व और निश्चय सम्यक्त्व में समानता स्वीकार की है। आचार्य कहते हैं कि - शुद्ध जीवादि तत्त्वार्थों का श्रद्धान रूप सराग सम्यक्त्व व्यवहार जानना चाहिये और वीतराग चारित्र के बिना नहीं होने वाला वीतराग सम्यक्त्व निश्चय सम्यक्त्व जानना चाहिए। इसी प्रसंग को परमात्मप्रकाश ग्रन्थ टीकाकार प्रस्तुत करते हैं कि प्रशम संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति सराग सम्यक्त्व का लक्षण है, वह ही व्यवहार सम्यक्त्व है और निज शुद्धात्मानुभूति लक्षणवाला और वीतराग चारित्र का अविनाभावी है वही वीतराग सम्यक्त्व निश्चय सम्यक्त्व कहलाता है। स. सि. 1/2/10, रा. वा. 1/2/29, श्लो. वा. 2/1/2 श्लोक 12/29, अन. ध... 2/51, गो. जी. का. 561, अ. ग. श्रा. 2/65-66 भ. आ. वि. 51/175/18 रा. वा. 1/2/31, अ. ग. श्रा. 2/65-66 द्र. सं. टी. 41 प. प्र. टी. 2/17 132 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org