________________ जब तक सम्यग्दृष्टि के स्वाध्याय, सामायिकादि की क्रियाओं में राग परिणति रहेगी तब तक उसके प्रशस्त राग होने के कारण सराग सम्यक्त्व की संज्ञा प्रदान की गई है। जहाँ किञ्चित् मात्र भी राग का अंश है वह सराग ही तो कहलायेगा। जहाँ राग के समस्त निमित्तों का त्याग करके मात्र शुद्धात्मतत्त्व के स्वरूप चिन्तन में ही जो रत रहेगा वह वीतराग सम्यक्त्व सहित कहलायेगा, क्योंकि राग प्रशस्त हो या अप्रशस्त, राग तो राग है। इसीलिए 10वें गुणस्थान तक के जीव को सराग सम्यक्त्वी और उससे ऊपर के गुणस्थानों में वीतराग सम्यक्त्व कहा गया है। अधिगमज और निसर्गज अथवा गृहीत और अगृहीत सम्यक्त्व सम्यग्दर्शन के दो भेद अधिगमज और निसर्गज लगभग सभी आचार्यों ने स्वीकार किये हैं। तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता आचार्य उमास्वामी ने प्रथम अध्याय में ही सम्यग्दर्शन का स्वरूप बताकर उसके भेदों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि - वह सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है। एक अधिगमज और दूसरा निसर्गज।' इन दोनों का स्वरूप बताते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं कि - दर्शन मोहनीय का उपशम-क्षय-क्षयोपशम रूप अन्तरंग कारण से युक्त होकर जो बाह्य उपदेशपूर्वक जीवादि पदार्थों के ज्ञान के निमित्त से होता है, वह अधिगमज सम्यग्दर्शन कहलाता है और अन्तरंग कारणों की समानता लिये हए जो बाह्य उपदेश के बिना स्वभाव से जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करना है वह निसर्गज सम्यग्दर्शन कहलाता है। इसी प्रसंग में आचार्य विद्यानन्दि स्वामी लिखते हैं कि - जिस प्रकार औपशमिक सम्यग्दर्शन निसर्ग और अधिगम दोनों से होता है उसी प्रकार क्षायोपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व भी दोनों प्रकार से होते हुए भले प्रकार प्रतीत होते हैं।' सम्यक्त्व के तीन भेद इस प्रकार से दो भेदों को अतिरिक्त अन्तरंग हेतु के रूप में कर्म प्रकृतियों के उपशम, क्षय और क्षयोपशम होने की अपेक्षा सभी आचार्यों ने सम्यक्त्व के तीन भेदों का भी उल्लेख किया है, जो कि औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक त. सू. 1/3, भा. सं. गा. 264, अन. ध. 2/47 स. सि. 1/3/15 श्लो. वा. 2/1/3 133 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org