________________ आचार्य कहते हैं कि कोई भी अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीव हो वह सर्वप्रथम औपशमिक सम्यक्त्व को ही प्राप्त करता है इसीलिए आचार्यों ने इसको 'प्रथमोपशम' के नाम से भी पुकारा है। कोई भी मिथ्यादृष्टि हो चाहे वह अनादि मिथ्यादृष्टि हो या सादि मिथ्यादष्टि हो वह जब भी उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा वह प्रथमोपशम ही कहलायेगा, चाहे वह कितने भी बार प्राप्त क्यों न करे। अनादि मिथ्यादृष्टि जब पहली बार औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है और अन्तर्मुहूर्त के बाद जब वह सम्यक्त्व से च्यत होता है तो तभी उसके पहली बार दर्शन मोहनीय के मिथ्यात्व से टूटकर तीन भागे होते. हैं। अन्यथा उससे पहले तो उसके एक ही मिथ्यात्व भेद था। यह प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने वाला जीव पञ्चेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्त और सर्व विशुद्ध होता है। नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देव ये चारों ही मिथ्यादृष्टि इसको प्राप्त कर सकते औपशमिक सम्यग्दृष्टियों में नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रसंग में आचार्य कहते हैं कि औपशमिक सम्यग्दर्शन के दो भेद होते हैं-1. प्रथमोपशम सम्यक्त्व तथा 2. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व। प्रथमोपशम का स्वरूप तो पहले ही कह गाये हैं। अब द्वितीयोपशम का स्वरूप कहते हुए आचार्य लिखते हैं - क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव उपशम श्रेणी के सन्मुख होते हुए अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ की विसंयोजना पूर्वक मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति का उपशम करके जो श्रद्धान उत्पन्न करता है वही द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहलाता है।' 2. क्षायिक सम्यक्त्व अन्तरंग हेतु के आधार पर सम्यक्त्व के तीन भेदों में से द्वितीय क्षायिक सम्यक्त्व है जो कि सबसे अधिक शद्ध, निर्मल तथा चिरस्थायी सम्यक्त्व है। इसके रा. वा. 2/3/2, ल. सा. गा. 41, गो. कर्म का. गा. 550 स. सि. 1/8 ल. सा. भाषा 2/42/1 135 Jain Education Interational For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org