________________ पहले लग जाये तो उन शून्यों की कीमत बढ़ जाती है। यदि कई शून्य भी हों अगर कोई अंक उससे पहले न हो तो उन शून्यों का कोई मूल्य नहीं होता है। उसी प्रकार मायग्दर्शन के बिना कितना भी ज्ञान हो और कितना भी चारित्र पालन किया जाय फिर भी वह मिथ्या ही कहलायेगा। जिस प्रकार अंक हीन शून्यों का कोई मूल्य नहीं है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र का भी कोई मूल्य नहीं होता है। सम्यग्दर्शन की महिमा का वर्णन कोई भी शब्दों से नहीं कर सकता। सम्यग्दर्शन की महिमा शब्दातीत है। इन आठों अंगों के नाम और स्वरूप में किसी भी आचार्य में मतभेद नहीं है। अत: उनका वर्णन यहाँ नहीं कर रहा हूँ। सम्यग्दर्शन के भेद सामान्यतया देखा जाय तो सम्यग्दर्शन सबको समानरूप से संसार सन्तति को नष्ट करने का एक हेतु है। इस अपेक्षा से तो सम्यग्दर्शन एक ही प्रकार का होता है। फिर भी आचार्यों ने सम्यग्दर्शन के अपेक्षा से भिन्न-भिन्न भेद प्रकट/प्रदर्शित किये हैं। कोई आचार्य दो भेद स्वीकार करते हैं तो कोई आचार्य तीन भेद और कोई आचार्य दस भेद भी स्वीकार करते हैं। सम्यग्दर्शन के दो भेदों में भी आचार्यों में मान्यतायें भिन्न-भिन्न हैं। कोई आचार्य दो भेदों में निश्चय सम्यक्त्व और व्यवहार सम्यक्त्व, कोई आचार्य सराग सम्यक्त्व और वीतराग सम्यक्त्व, कोई आचार्य निसर्गज और अधिगमज एवं कोई आचार्य गृहीत और अगृहीत सम्यक्त्व को स्वीकार करते हैं। व्यवहार और निश्चय एवं सराग और वीतराग इन सम्यक्त्व में कथञ्चित् समानता को आचार्यों ने प्रदर्शित किया है और इसी तरह अधिगमज और निसर्गज एवं गृहीत और अगृहीत इनमें भी स्वरूप की अपेक्षा कोई भी भेद आचार्यों ने व्यक्त नहीं किया है। उनमें से व्यवहार सम्यग्दर्शन के स्वरूप को प्रदर्शित करते हुए आचार्य लिखते हैं कि - हिंसा आदि से रहित धर्म, अट्ठारह दोषों से रहित देव, निर्ग्रन्थ प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग एवं गुरु इनमें श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन कहलाता है। इसी प्रकार शब्दशैली में परिवर्तन करते हुए आचार्य लिखते हैं कि - छह द्रव्य, नव पदार्थ, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व ये जिन वचन में कहे गये हैं। इनके स्वरूप का जो र. सा. गा. 4 मो. पा. गाथा 90, का. अ. गा. 317, नि. सा. गा. 5, र. क. श्रा. श्लोक 4 130 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org