________________ इस गुणस्थान वाला जीव जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे गये प्रवचन का नियम से श्रदान करता है तथा स्वयं जो विषय नहीं जानता है वह विषय गुरु की सहायता से जानकर उस पर श्रद्धान करता है वही सम्यग्दर्शन है। ये सभी परिभाषायें भिन्न-भिन्न आचार्यों के द्वारा भिन्न-भिन्न प्रसंगों को दृष्टि में रखकर रची गई हैं। यही कारण है कि उनमें शाब्दिक असमानता प्रायः झलकती है परन्तु अभिप्राय की अपेक्षा समानता होने से इसमें मतभेद का अभाव ही परिलक्षित होता है। सभी आचार्यों का अभिप्राय जीव को जिनशासन का श्रद्धानी बनाकर मोक्ष की दिशा में प्रेरित करने का ही है। जो विषय वह सही प्रकार से नहीं जानता है तो भी उसको वह आचार्य या अरिहन्त देव द्वारा कहा गया मानकर उस पर सच्ची श्रद्धा रखता है तो भी वह सम्यग्दृष्टि रहता है परन्तु यदि कोई उसको समीचीन सूत्र आदि के द्वारा समझाता है और नहीं स्वीकार करता है तो वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है। सम्यग्दर्शन के गुण तीर्थकरों एवं आचार्यों ने जिन तत्त्वों का स्वरूप प्ररूपित किया है उन तत्त्वों का श्रद्धान करने वाले सम्यग्दृष्टि जीव इस लोक में विरले ही होते हैं। वे सम्यग्दृष्टि जीव अन्य मनुष्यों से कुछ विशेषताओं को धारण किये हुए होते हैं जिनको ज्ञानीजन गुण की उपमा देते हैं। ऐसे अनेकों गुण सम्यग्दृष्टि जीवों को सबसे पृथक् स्थापित करते हैं। उन अनेकों गुणों में से आचार्यों ने कुछ मुख्य गुणों को अपने-अपने ग्रन्थों में उद्धृत किया है। आचार्य चामुण्डराय ने सम्यग्दृष्टि के गुणों का उल्लेख करते हुए लिखा है - संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, अनुकम्पा और वात्सल्य ये आठ गुण सम्यग्दृष्टि जीव के होते हैं। यही आठ गुण भावसंग्रहकार आचार्य देवसेन स्वामी ने भी स्वीकार किये हैं। आचार्य शुभचन्द्र स्वामी लिखते हैं कि जो सराग सम्यग्दृष्टि है उसके तो प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य होते हैं और वीतराग सम्यग्दृष्टि की समस्त प्रकार से आत्मा की शुद्धिमात्र है। महापुराणकार आचार्य जिनसेन स्वामी भिन्न प्रकार के गुणों को व्यक्त करते गो. जी. का. गा. 27 गो. जी. गा. 28 चा. सा. 6/2, व. श्रा. गा. 49, भा. सं. गा. 263, ध. 30/465 ज्ञानार्णव 6/7 125 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org