________________ सम्यग्दर्शन का स्वरूप बताते हुए आचार्य वटकर स्वामी लिखते हैं कि जो जिनेन्द्र देव ने कहा है वही वास्तविक है, इस प्रकार से जो भाव से ग्रहण करना है वह सम्यग्दर्शन है। सबसे प्रचलित परिभाषा को व्यक्त करते हुए आचार्य उमास्वामी लिखते हैं कि सात तत्त्वों के अर्थ का सम्यक् प्रकार से श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है।' __ आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी की ही परिभाषा का आधार लेते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वामी लिखते हैं कि परमार्थ भूत देव, शास्त्र और गुरु का तीन मूढताओं से रहित आठ अंगों से सहित और आठ प्रकार के मदों से रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। इसी प्रसंग में आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी लिखते हैं कि छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, नव पदार्थ इनका जिनेन्द्रदेव ने जिस प्रकार से वर्णन किया है उसी प्रकार से उनका श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। इन सब परिभाषाओं को और भी अधिक परिष्कृत करके आचार्य वसुनन्दि कहते हैं कि सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सात तत्त्वों का शंकादि / पच्चीस दोषों से रहित जो अति निर्मल श्रद्धान है, वह सम्यग्दर्शन कहलाता है। सम्यग्दर्शन का स्वरूप प्रकट करते हुए आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी लिखते हैं कि जीवादि पदार्थों का जो श्रद्धान करना है वह सम्यग्दर्शन है और वह सम्यक्त्व आत्मा का. . . स्वरूप है। इसी प्रकार से सम्यग्दर्शन का स्वरूप बताते हुए आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि सूत्र (जिनेन्द्र देव के वचन) में कही गई युक्ति के द्वारा जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना जिनेन्द्र भगवान् ने सम्यग्दर्शन कहा है। आचार्य देवसेन स्वामी ने भावसंग्रह एवं आराधनासार दोनों ग्रन्थों में सम्यक्त्व का स्वरूप बताया है परन्तु दोनों में थोड़ा सा अन्तर दिखाई पड़ता है। फिर भी दोनों ही परिभाषाओं को अच्छी प्रकार से देखने पर दोनों में भावों की अपेक्षा समानता ही प्रतीत होती है और दोनों ग्रन्थों में शैली परिवर्तन भी एक मुख्य कारण हो सकता है कि ऐसे शब्दों में अन्तर दिखाई पड़ता है मूलाचार पंचाचाराधिकार गा. 265 त. सू. 1/2 र. श्रा. श्लोक 4 गो. जी. का. गा. 561 व. श्रा. गा. 6 द्र. सं. गा. 41 आराधनासार गा. 4 124 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org