________________ हिए लिखते हैं संवेग, प्रशम, स्थिरता, आमूढ़ता, गर्व न करना, आस्तिक्य और अनुकम्पा सात सम्यग्दर्शन की भावनायें जानने योग्य हैं।' इन आठ आदि गुणों में एक विशेषता यह स्पष्ट प्रतीत होती है कि प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य इन चार गुणों को प्रत्येक आचार्य ने अवश्य ही स्वीकार किये हैं। इसका अभिप्राय यह हुआ कि जहाँ ये चा गण विद्यमान होंगे वहाँ उस जीव में सम्यग्दर्शन तो पाया ही जायेगा। इन चारों गणों के मानने में किसी भी आचार्य में कोई भी मतभेद नहीं है। इन्हीं चारों का स्वरूप संक्षेप से व्यक्त करते हुए आचार्य लिखते हैं कि - प्रशम - पञ्चेन्द्रियों के विषयों में और अत्यधिक तीव्रभाव रूप क्रोधादिक कषायों में स्वरूप से शिथिल मन का होना ही प्रशम भाव कहलाता है। अथवा उसी समय अपराध करने वाले जीवों पर कभी भी उनके वधादि रूप विकार के लिये बुद्धि का नहीं होना प्रशम भाव कहलाता है। प्रशम भाव की उत्पत्ति में निश्चय से अनन्तानुबन्धी कषायों का उदयाभाव और अप्रत्याख्यानादि कषायों का मन्द उदय कारण है। सम्यग्दर्शन का अविनाभावी प्रशम भाव सम्यग्दृष्टि का परम गुण है। जो प्रशम भाव का झूठा अहंकार करते रहते हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों के प्रशमाभास होता है। संवेग - संसार के दु:खों से भयभीत होना तथा धर्म में अनुराग होना संवेग कहलाता है।' इसी परिभाषा का और परिष्कार करके आचार्य ब्रह्मदेवसूरि लिखते हैं कि धर्म में, धर्म के फल में और दर्शन में जो हर्ष होता है, वह संवेग कहलाता है।' धवलाकार कहते हैं कि हर्ष और सात्विक भाव का नाम संवेग है। लब्धि में संवेग की सम्पन्नता का अर्थ सम्प्राप्ति है। पं. राजमल जी अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि - धर्म में और धर्म के फल में आत्मा का जो परम उत्साह होता है वह संवेग कहलाता है, अथवा धार्मिक पुरुषों में अनुराग अथवा पञ्चपरमेष्ठी में प्रीति रखने को संवेग कहते हैं।' म. पु. 21/97 प. ध./3. 426-428, द. पा. 2 भ. आ. 35/127, स. सि. 6/24, रा. वा. 6/24/5, चा. सा. 53/5, भा. पा. टी. 77 द्र. सं. टी. 35 ध. 8/3,41/86/3 पं. ध. उ. 431 126 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org