________________ मिचन्द्रस्वामी भी अपने भाव स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सामान्य-विशेषात्मक पदार्थों के आकार विशेष को ग्रहण न करके जो केवल निर्विकल्प रूप से अंश का या स्वरूप मात्र का सामान्य ग्रहण होता है, उसे परमागम में दर्शन कहते हैं।' आचार्य वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि उत्तरज्ञान की उत्पत्ति के निमित्तभूत प्रयत्नविशिष्ट स्वसंवेदन दर्शन माना है।' दर्शन, रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा, स्पर्शन ये सब एकार्थवाचक नाम हैं। आप्त या आत्मा में आगम और पदार्थों में रुचि या श्रद्धा को दर्शन कहते हैं। श्रद्धा को ही विषय करके दर्शन का अर्थ बताते हुए प्रवचनसार के टीकाकार आचार्य लिखते हैं कि तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणरूप दर्शन से शुद्ध हुआ दर्शनशुद्ध कहलाता है। दर्शन शब्द से निजशुद्धात्म श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन ग्रहण करना चाहिये। सम्यग्दर्शन के स्वरूप को व्यक्त करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने जीवादि नव पदार्थों को ही सम्यक्त्व कहा है। इसी प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी अन्य प्रकार से भी परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि हिंसा रहिए धम्मे, अट्ठारहदोसवज्जिए देवे। णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मतं।' इसमें आचार्य का आशय है कि हिंसा से रहित धर्म में, अट्ठारह दोषों से रहित देव अर्थात् आप्त में, निर्ग्रन्थ श्रमण के प्रवचन (समीचीन शास्त्र) में श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। इसी गाथा को आचार्य देवसेन स्वामी ने भी भावसंग्रह में ग्रहण किया है। इससे प्रतीत होता है कि आचार्य देवसेन स्वामी पर आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी का गहरा प्रभाव था। इस गाथा का एक-एक शब्द पूर्णरूप से मोक्षपाहुड की गाथा से मेल करता है। अर्थात् आचार्य कन्दकन्द स्वामी के एक-एक शब्द को अक्षरश: ग्रहण किया है। द्र. सं. गा. 43 ध. 3/1,2,161/457 ध, 6/1,9,121/138 प्र. सा. ता. वृ. 240/333/15 मोक्षपाहुड गा. 90, भावसंग्रह गा. 262 123 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org