________________ गणस्थान तक के सभी गुणस्थान असंयम भाव से यक्त होते हैं। चारित्र मोहनीय की अप्रत्याख्यानावरण आदि कषायों का उदय होने से दोनों प्रकार के संयम से रहित जीव की अवस्था ही असंयम है। इसमें प्रयुक्त होने वाला द्वितीय पद 'सम्यक्' है जिसको व्याख्यायित करते हुए सर्वार्थसिद्धिकार कहते हैं कि 'सम्यक्' शब्द अव्युत्पन्न अर्थात् रौढ़िक और व्युत्पन्न अर्थात् व्याकरणसिद्ध है। सम् उपसर्ग पूर्वक अञ्च् धातु से क्विप् प्रत्यय करने पर 'सम्यक्' शब्द बनता है। संस्कृत में इसकी व्युत्पत्ति 'समञ्चति इति सम्यक्' इस प्रकार होती है। इसका अर्थ प्रशंसा है। इसी पद को और भी अधिक प्रकाशित करते हुए राजवार्तिककार आचार्य अकलंकस्वामी लिखते हैं कि सम्यक् यह प्रशंसा सार्थक शब्द है। यह प्रशस्त रूप, गति, जाति, आयु, विज्ञानादि अभ्युदय और निःश्रेयस का प्रधान कारण होता है। यहाँ कोई शंका करता है कि सम्यक् शब्द का प्रयोग इष्टार्थ और तत्त्व अर्थ में होता है, अतः इसका प्रशंसार्थ उचित नहीं है। इसका समाधान करते हुए आचार्य लिखते हैं कि निपात शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं अथवा सम्यक् का अर्थ तत्त्व भी किया जा सकता है अथवा यह क्विप् प्रत्ययान्त शब्द है। इसका अर्थ है जो पदार्थ जैसा है वैसा ही जानने वाला। इस गुणस्थान के नाम में जो अन्तिम पद 'दर्शन' है उसके स्वरूप को प्रकट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि दर्शन शब्द 'दृश्' देखना धातु से करण अर्थ में 'ल्युट्' प्रत्यय लगाकर बना है। अब दर्शन शब्द का व्युत्पत्ति अर्थ बताते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी अपना अभिप्राय व्यक्त करते हैं कि जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाता है या देखना मात्र दर्शन कहलाता है। इसी विषय को और भी अधिक आलोकित करते हुए राजवार्तिककार कहते हैं कि जिससे देखा जाय वह दर्शन है। एवंभूतनाय की अपेक्षा दर्शन पर्याय से परिणत आत्मा ही दर्शन है। जो देखता है वह दर्शन है, देखना मात्र ही दर्शन है।' दर्शन को सामान्य अवलोकन मात्र रूप में भी स्वीकार किया है। ऐसा ही आचार्य स. सि. 1/1/5 रा. वा. 1/2/1 स. सि. 1/1/6, ध. 1/1,1,4/145 रा. वा. 1/1/5 122 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org