________________ में एकान्त रूप पक्ष को ग्रहण करके दुराग्रही हो जाते हैं। इसी कारण से यह मिथ्यात्व की कोटि में गणनीय हैं। एक पक्ष से देखा जाय तो इनका कथन बिल्कुल सही होता है परन्त यह उसी एक पक्ष का आग्रह करते हैं इसीलिए ये सर्वमान्य नहीं हैं। तदनन्तर मिथ्यात्व के विपरीत आदि जो पाँच भेद उल्लिखित किये गये हैं उनका स्वरूप व्यक्त करते हुए आचार्य लिखते हैंविपरीत मिथ्यात्व - जैसा वस्तुस्वरूप है उससे विपरीत मानना जैसे-सग्रन्थ को निर्ग्रन्थ मानना, कवली को केवलाहारी मानना और स्त्री सिद्ध होती है इत्यादि मानना विपर्यय अर्थात विपरीत मिथ्यात्व कहलाता है। यहाँ पर विपरीत अभिप्राय से यह तात्पर्य है कि विपरीत एक पक्ष का निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय या विपरीत कहा गया है। जैसे-सीप में चाँदी का ज्ञान करना। मोक्ष के हेतुभूत सम्यक्त्व स्वभाव को रोकने वाला निश्चय से मिथ्यात्व है और वह मिथ्यात्व द्रव्यकर्म रूप ही है। उसके उदय से जीव के मिथ्यात्व होता है। यज्ञ करने वाले ब्राह्मण आदि विपरीत मिथ्यादृष्टि हैं। ऐसा भावसंग्रहकार एवं गोम्मटसार जीवकाण्ड के कर्ता स्वीकार करते हैं। एकान्त मिथ्यात्व - प्रतिपक्षी की अपेक्षा रहित वस्तु को सर्वथा एकरूप कहना एवं मानना एकान्त मिथ्यात्व कहलाता है। जैसे जीव सर्वथा अस्तिरूप ही है या सर्वथा . नास्तिरूप ही है, सर्वथा नित्य ही है अथवा सर्वथा क्षणिक ही है। सर्वथा नियतिरूप मानना अथवा अनियति रूप ही मानना। परमतों का वचन 'सर्वथा' कहा जाने से मिथ्या है। इसी कथन को और पुष्ट करते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं कि धर्म और धर्मी में एकान्त रूप अभिप्राय रखना एकान्त मिथ्यात्व कहलाता है। जैसे यह सब जग परब्रह्मरूप ही है। राजवार्तिककार आचार्य अकलंकस्वामी लिखते हैं कि एक धर्म का सर्वथा अवधारण करके अन्य धर्मों का निराकरण करने वाला मिथ्या एकान्त है। इसी एकान्त मिथ्यात्व का स्वरूप प्रदर्शित करते हुए सप्तभंगीतरंगिणी के लेखक आचार्य - 1 Aw स. सि. 8/1/731, रा. वा. 8/1/289, त. सा. 5/6 प्र. सा. टी. तत्त्वदीपिका 'परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सव्वहा वयणा'। स. सि. 8/1/731 रा. वा. 1/6/7/35/24 110 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org