________________ विषय को और अधिक व्याख्यायित करते हुए आचार्य लिखते हैं कि क्षीणाक्षीण मदशक्ति / वाले भेदों के उपभोग से जैसे कुछ मिला हुआ मदपरिणाम होता है, उसी तरह साम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से तत्त्वार्थ का श्रद्धान और अश्रद्धान रूप मिला हुआ परिणाम होता है। यही तीसरा सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान कहलाता है।' इसी विषय को भावसंग्रहकार आचार्य देवसेन स्वामी भिन्न दृष्टान्त को देते हुए स्वरूप प्रकट करते हैं कि जिस प्रकार खच्चर जाति का गधा घोड़ी और गधा इन दोनों से उत्पन्न होने वाला एक तीसरी जाति का जीव होता है। उसी प्रकार तीसरे मिश्र गुणस्थान में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों से मिले हुए एक तीसरी जाति के परिणाम होते हैं। इस तीसरे गुणस्थान में रहने वाला जीव न तो गृहस्थों का एकदेश संयम धारण कर सकता है और न सकल संयम धारण कर सकता है। दर्शन मोहनीय की सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होने से ही इस गुणस्थान के योग्य परिणाम बनते हैं। यह प्रकृति जात्यन्तर सर्वघाति प्रकृति है।' अर्थात् यह सत्ता में तो सर्वघाती होती है, परन्तु उदय के समय देशघाती रूप फल देती है। यही कारण है कि श्रद्धान के साथ अश्रद्धान एक साथ रह जाता है। यहाँ यह शंका नहीं करनी चाहिये कि परस्पर विरोधी भाव एक साथ कैसे पाये जा सकते हैं? इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि मित्रामित्र न्याय से दोनों भावों का एक साथ होना सम्भव है। जिस प्रकार देवदत्त नामक किसी मनुष्य में यज्ञदत्त की अपेक्षा मित्रपना और चैत्र की अपेक्षा अमित्रपना है। ये दोनों धर्म एक ही काल में रहते हैं और उनमें कोई विरोध नहीं आता है। उसी प्रकार सर्वज्ञदेव द्वारा निरूपित पदार्थ के स्वरूप के श्रद्धान की अपेक्षा समीचीन और सर्वज्ञाभासकथित अतत्त्व श्रद्धान की अपेक्षा मिथ्यापना ये दोनों ही धर्म एक काल और एक आत्मा में घटित हो सकते हैं। इनमें कोई भी विरोधादि दोष प्रकटित नहीं होते हैं। इस गुणस्थान को समझाने के लिये जैनागम में दही और गुड़ के मिश्रण से तीसरा ही स्वाद उत्पन्न होने वाला सुन्दर दृष्टान्त दिया गया है। यहाँ मिश्र स्वाद |- - रा. वा. 9/1/14, द्र. सं. टी. 13/33/2 भावसंग्रह गा. 199 गो. जी. का. गा. 21 119 Jain Education International For Personal www.jainelibrary.org Private Use Only