________________ सकता। विपरीत श्रद्धान होने के कारण वह अपने आत्मा का स्वरूप अथवा समस्त तत्त्वों का स्वरूप विपरीत ही समझता है और इसीलिए वह अपने आत्मा का अहित ही करता अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के दर्शन मोहनीय का एक मिथ्यात्व कर्म का उदय रहता है और सादि मिथ्यादृष्टि जीव के तीनों दर्शन मोहनीय के भेदों का उदय रहता है। . इसका भी कारण यह है कि प्रथम औपशमिक सम्यग्दर्शन होने के समय ही मिथ्यात्वकर्म तीन भागों में बँट जाता है। अतः अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्यात्व कर्म के उदय से पहला मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। इन्हें तत्त्व कुतत्त्व का विवेक नहीं रहता। ऐसे जीव शरीर में ही आत्मा की भ्रान्ति बनाये रखते हैं। यह जीव की अधस्तम अवस्था है। संसार के बहुसंख्यक जीव इसी गुणस्थान में रहते हैं। निज आत्मा के श्रद्धानरूप से विमुखता मिथ्यादर्शन है। आचार्य ब्रह्मदेवसूरी ने भी मिथ्यात्व का स्वरूप प्रकट किया है-'अन्तरंग में वीतराग निजात्मतत्त्व के अनुभवरूप रुचि में विपरीत अभिप्राय उत्पन्न कराने वाला तथा बाहरी विषय में अन्य के शुद्ध आत्मतत्त्व आदि समस्त द्रव्यों में जो विपरीत अभिप्राय . . उत्पन्न कराने वाला है उसे मिथ्यात्व कहते हैं।' इस स्वरूप में आचार्य ब्रह्मदेवसूरी ने अन्तरंग और बहिरंग का एक साथ संयोग दिखाकर अच्छा सामञ्जस्य स्थापित किया है। मिथ्यादर्शन मूलतः एक ही प्रकार का है परन्तु विभिन्न निमित्त एवं अभिप्राय के कारण दो भेद वाला, तीन भेद वाला, पाँच भेद वाला अथवा जितने जीवों के परिणाम हैं, उतने ही अनेक भेदवाला भी हो सकता है। इन सभी भेदों के मध्य दर्शन मोहनीय की मिथ्यात्व प्रकृति का उदय ही अन्तरंग निमित्त है जो सभी मिथ्यादृष्टि जीवों में अनिवार्य रूप से होता ही है। मिथ्यात्व के दो भेद' गृहीत व अगृहीत, मूढ एवं स्वभाव निरपेक्ष तथा स्वस्थान मिथ्यात्व एवं सातिशय मिथ्यात्व होते हैं। स. सि. 8/1/375 न. च. बृ. 303 108 Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org