________________ 12. सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान आसादन का अर्थ विराधना है। आसादन के साथ जो रहता है वह सासादन। आसादन सहित समीचीन दृष्टि है जिसके वह सासादन सम्यग्दृष्टि' है। प्रथमोपशम सिम्यक्त्व अथवा द्वितीयोपशम के काल में जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से छह आवली समय शेष रहने पर जीव सम्यक्त्व से गिरकर उतने मात्र काल के लिये जिस गणस्थान को प्राप्त होता है, उसे सासादन कहते हैं। अगले ही क्षण वह मिथ्यात्व को अवश्य ही प्राप्त होता है। इस गुणस्थान को दृष्टान्त के माध्यम से समझाते हुए आचार्य लिखते हैं कि सम्यक्त्वरूपी रत्नगिरि के शिखर से च्युत होकर मिथ्यात्वरूपी भूमि के अभिमुख है और उसका सम्यग्दर्शन नष्ट हो चुका है वह सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान नामवाला जानना चाहिये। यहाँ कोई प्रश्न करता है कि इस जीव को क्या कहा जायेगा? क्योंकि इसके मिथ्यात्व प्रकृति का उदय नहीं होने से वह मिथ्यादृष्टि नहीं है, सम्यक्त्व से च्युत हो चुका है तो सम्यग्दृष्टि भी नहीं है और दोनों को विषय करने वाली सम्यग्मिथ्यात्व रूप रुचि का अभाव होने से सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी नहीं है। इसके अतिरिक्त कोई चौथी दृष्टि होती नहीं है तो क्या कहा जायेगा? तो इस प्रश्न का उत्तर देते हुए धवलाकार आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं कि पहले वह सम्यग्दृष्टि था, क्योंकि प्रथमोपशम से गिरकर ही सासादन गुणस्थान बनता है। इसलिये भूतपूर्व न्याय की अपेक्षा उसके सम्यग्दृष्टि संज्ञा बन जाती है। इस अवस्था में अनन्तानुबन्धी कषाय के क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी एक कषाय का उदय होता है और दर्शन मोह के उपशमन काल में अनन्तानुबन्धी के उदय का अभाव होने से सासादन' की प्राप्ति का अभाव है। इसी प्रसंग में राजवार्तिककार कहते हैं कि मिथ्यात्व का उदय न होने पर भी इस जीव के तीनों मति, श्रुत, अवधिज्ञान अज्ञान कहे जाते हैं। इसी विषय का समर्थन करते हुए आचार्य वीरसेन रा. वा. 9/1/13, ध. 1/1,10/163/5 पं. सं. प्रा. 1/9/168, ध. 1/1, 1,10 गा. 108, 166, गो. जी. का. गा. 20, भा. स. गा. 197 ध. 1/1,1,10/166/1 .ल. सा. जी. प्र. 99/136/16 रा. वा. 9/1/131 116 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org