________________ च, तिर्यग्योगी, लौकिक, अभव्य, पापजीव, राजवल्लभ नौकर, मूढ़, लोभी, क्रूर, दुरपोक, मूर्ख और भवाभिनन्दी आदि उपर्युक्त निन्दापरक शब्द प्रथम गुणस्थान की हेयता को सिद्ध करते हैं। इन शब्दों को कहकर आचार्य गुणस्थान से ऊपर उठने की प्रेरणा देना हितकर महसूस करना चाह रहे हैं। बाह्य से द्रव्यलिंग होने पर भी यदि अन्तरंग में मिथ्यात्व का उदय हो तो जीव अपना कल्याण करने में समर्थ नहीं हो सकते। यही जैन दार्शनिकों का अभिप्राय प्रतिभासित हो रहा है। मिथ्यात्व गुणस्थान की विशेषताएँ * मिथ्यात्व के दो भेद हैं-(i) गृहीत मिथ्यात्व (ii) अगृहीत मिथ्यात्व * (i) स्वस्थान मिथ्यादृष्टि (ii) सातिशय मिथ्यादृष्टि *(i) अनादि अनन्त मिथ्यादृष्टि (ii) अनादि सान्त मिथ्यादृष्टि (iii) सादि सान्त मिथ्यादृष्टि से तीन भेद हैं। इनका जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त एवं उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्द्धपुद्गल परावर्तन प्रमाण होता है। * (i) एकान्त (ii) विपरीत (iii) विनय (iv) संशय (v) अज्ञान * (i) क्रियावादी - 180 व्यवहाराभासी (ii) अक्रियावादी - 84 निश्चयाभासी (iii) वैनयिक - 32 समस्त देवों का आराधक (iv) अज्ञानिक - 67 (गोम्मटसार जी) हिताहित विवेक से रहित , * एकेन्द्रिय से असैनी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के पहला गुणस्थान ही होता है। * किन्हीं आचार्यों के मत से उपरोक्त जीवों के निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में दूसरा गुणस्थान भी माना गया है। * म्लेच्छ खण्ड में जन्मे हुए जीव (मनुष्य और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च) जब तक अपने क्षेत्र में रहते हैं तब तक उनके एक ही मिथ्यात्व गुणस्थान रहता है। (लब्धिसार जी)। नरक सम्बन्धी दूसरी पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी पर्यन्त निवृत्यपर्याप्तक अवस्था में एक मिथ्यात्व गणस्थान ही होता है। 114 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org