________________ को और पुष्टता प्रदान करते हुए आचार्य अकलंक स्वामी कहते हैं कि 'सामान्य धर्म का प्रत्यक्ष होने पर और विशेष धर्म का प्रत्यक्ष न होने पर किन्तु उभय विशेषों का स्पर्श होना संशय कहलाता है।' 'यह शुक्ल है या कृष्ण' इत्यादि में विशेषता का निश्चय न डोना संशय है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षमार्ग हैं या नहीं, इसप्रकार किसी एक पक्ष को स्वीकार नहीं करना संशय मिथ्यात्व कहलाता है।' इसीप्रकार इसके स्वरूप को अन्य आचार्य अन्य प्रकार से परिभाषित करते हुए कहते हैं कि-जिसमें तत्चों का निश्चय नहीं है ऐसे संशय ज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले श्रद्धान को संशय मिथ्यात्व कहते हैं। इसी स्वरूप को आचार्य वीरसेन स्वामी अतिसंक्षेप में उल्लेख करते हुए लिखते हैं 'सर्वत्र सन्देह ही है निश्चय नहीं है, ऐसे अभिनिवेश को संशय मिथ्यात्व कहते हैं।" भावसंग्रहकार ने श्वेताम्बरों को संशय मिथ्यादृष्टि माना है और आचार्य नेमिचन्द्र ने भी। वे कहते हैं कि जिनके मन में यह संशय नियम से बना ही रहता है कि मोक्ष की प्राप्ति निर्ग्रन्थ अवस्था से होती है अथवा सग्रन्थलिङ्ग से, इसलिये ये लोग वस्त्र, कम्बल आदि बहुत सा परिग्रह रखते हैं। उनको यह संशय बना रहता है कि जब गृहस्थ अवस्था से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है तो फिर तीर्थकर आदि को राज्य और समस्त परिग्रह के .. त्याग करने की क्या आवश्यकता थी? और फिर त्याग ही किया तो फिर वस्त्र, दण्ड आदि क्यों धारण किये? हाथ में पात्र लेकर घर-घर भिक्षा क्यों माँगी? त्याग करके फिर ग्रहण क्यों किया? क्या रत्नवृष्टि भी घर-घर बरसी थी? इत्यादि अनेकों अवस्थाओं में उनके संशय बना रहता है। इसीलिए किसी भी निश्चित तथ्य का निर्णय नहीं कर पाने के कारण ही वे संशय मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं। अज्ञानमिथ्यात्व - हिताहित की परीक्षा से रहित होना अज्ञानिक मिथ्यात्व कहलाता है।" धवलाकार इसके स्वरूप को और अधिक स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि 'नित्यानित्य विकल्पों से विचार करने पर जीवाजीवादि पदार्थ नहीं हैं, अतएव सब अज्ञान ही है, ज्ञान रा. वा. 1/6/9/ स. सि. 8/1, रा. वा. 8/1/28, त. सा. 5/5 भ. आ. वि. 56/190/20 ध. 8/3, 6/20/8 भा. सं. गा. 85,90 स. सि. 8/1, रा. वा. 8/1/28 112 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org