________________ अपेक्षा नियत संख्या वाले ही गुणस्थान कहे गये हैं। इसीलिए गुणस्थानों के 14 भेद ही सर्वमान्य निर्णीत हैं। षट्खण्डागम से लेकर पञ्चसंग्रह, गोम्मटसार, भावसंग्रह आदि सभी ग्रन्थों में निम्नलिखित नाम ही स्वीकार किये हैं मिच्छो सासण मिस्सो अविरियसम्मो य देसविरदो य। विरओ पमत्त इयरो अपुव्व अणियट्टि सुहमो य॥.. उवसंत खीणमोहो सजोइकेवलिजिणो. अजोगी य। ए चउदस गुणठाणा कमेण सिद्धा य णायव्वा॥ अर्थात् मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकवली, अयोगकेवली ये क्रम से चौदह गुणस्थान होते हैं तथा सिद्धों को गुणस्थानातीत जानना चाहिये। इनमें आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि के अनुसार अपूर्वकरण का अपरनाम . अपूर्वकरण प्रविष्टशुद्धि संयत, अनिवृत्तिकरण का अपरनाम अनिवृत्तिकरण बादरसाम्पराय प्रविष्ट शुद्धि संयत और सूक्ष्मसाम्पराय या सूक्ष्मसाम्पराय प्रविष्ट शुद्धिसंयत, उपशान्तकषाय या उपशान्तकषाय छमस्थ वीतराग, क्षीणमोह अथवा क्षीणमोह छद्मस्थवीतराग ये अपर नाम भी हैं। दिगम्बर एवं श्वेताम्बर मान्यताओं में इन सभी गुणस्थानों के नाम लगभग एकरूपता को लिये हुए हैं। श्वेताम्बर परम्परा में आठवें गुणस्थान का नाम कुछ भिन्न प्राप्त होता है। 'कर्मस्तव' नामक ग्रन्थ में गाथा का उल्लेख है मिच्छे सासण मीसे, अविरय देसे पमत्त अपमत्ते। नियट्टि अनियट्टि सुहुमुवसम खीणसजोगिअजोगिगुणा॥ भावसंग्रह गाथा 10,11, प्रा. पं. सं. अ. 1 गाथा 4,5 ष. ख. 1/1, 1 सूत्र 9-22 106 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org