________________ एक जैसे नहीं रहते। जीव के परिणामों में प्रतिक्षण उतार-चढ़ाव होता रहता है। गुणस्थान आत्मपरिणामों में होने वाले इन उतार-चढ़ावों का बोध कराता है। मोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यात्व और सासादन ये दो गणस्थान होते हैं। दर्शन मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से मिश्र गुणस्थान होता है। दर्शन मोहनीय एवं चारित्र-मोहनीय कर्म की अनन्तानुबन्धी चतुष्क के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से चतुर्थ गुणस्थान होता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयाभाव से पञ्चम गुणस्थान होता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयाभाव से 6 से 10 तक पाँच गुणस्थान होते हैं। चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम से 11वाँ और क्षय से 12वाँ गुणस्थान होता है किन्तु 13वें गणस्थान में शरीर नाम कर्मोदय के कारण योग है और गुणस्थान में शरीर नाम कर्मोदय के कारण योग है और शरीरनामकर्मोदय के अभाव हो जाने से 14वें गुणस्थान में योग भी नहीं होता। चार घातिया और चार अघातियारूप आठ कर्मों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के बन्ध-उदय-सत्त्व का सम्पूर्ण रूप से क्षय हो जाने पर मुक्तावस्था उत्पन्न होती है। यह अवस्था गुणस्थानातीत है, क्योंकि यहाँ कर्मों का सत्त्व ही नहीं रहा। आत्मा अनादिकाल से कर्मों से बद्ध होने के कारण अपनी स्वाभाविक शक्तियाँ प्रगट नहीं कर पाती है। कर्मों का आवरण उसके मूल स्वरूप को आवृत या विकृत कर देता है। जितनी-जितनी कर्म आवरण की घटायें सघन होती जाती हैं, उतनी-उतनी जीव शक्तियों का प्रकाश कम होता जाता है तथा इसके विपरीत जैसे-जैसे कर्म पटल विरल होते हैं, वैसे-वैसे आत्मशक्ति प्रकट होती जाती है। जीव के परिणामों की हीनाधिकता के अनुसार आत्मशक्तियों का विकास और ह्रास होता है। गुणस्थानों के भेद आत्मपरिणामों की विविधताओं को देखते हुए गुणस्थानों की संख्या भी अधिक होनी चाहिए। आचार्यों ने इन विविध परिणामों को 14 समूह में समाहित किया है। कोई भी जैन दार्शनिक गुणस्थान की इस संख्या का विरोधी नहीं है। गुणस्थानों की संख्या के विषय में धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी स्पष्ट कहते हैं कि जितने परिणाम होते हैं, उतने ही गुणस्थान यदि माने जायें तो व्यवहार ही नहीं चल सकता है। अतः द्रव्यार्थिक नय ध. पु. 1/11 105 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org