________________ गुणस्थानों का ज्ञान करने के बाद ही शिष्य कर्म सिद्धान्त के जटिल समीकरण को समझ सकता था। अतएव गुणस्थान, पठन-पाठन के लिये एक प्राथमिक अनिवार्यता का कार्य करता है। आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि के समय में सभी इसकी सूक्ष्मता से अवगत थे, इसलिये उन्होंने गुणस्थान का परिचय मात्र दिया तथा इसकी जटिलताओं में प्रवेश कर गये। लिपिबद्ध इतिहास की दृष्टि से जैन आगम का लेखनकार्य ईसा की प्रथम शताब्दी के पूर्व भाग में ही प्रारम्भ हो चुका था। आचार्य गुणधर स्वामी ने अपने ग्रन्थ 'कसाय पाहुड' में तथा आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने 'षट्खण्डागम' में गुणस्थान से जुड़े जटिलतम विवेचन गाथाबद्ध तथा सूत्रबद्ध करना प्रारम्भ कर दिया था। इसप्रकार प्राकृत भाषा में ही गुणस्थान का प्राचीनतम रहस्य छिपा हुआ है। इसके बाद संस्कृत भाषा में भी कर्मसिद्धान्त को गूंथा जाने लगा। ईसा की प्रथम शताब्दी में ही आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थ 'समयसार' में गुणस्थान शब्द का प्रयोग किया गया है। वहीं 'तिलोयपण्णत्ति' में आचार्य यतिवृषभ ने तो विभिन्न गुणस्थानों में जीवों की संख्या आदि का निर्देश कर स्पष्ट कर दिया कि पूर्व में ही गुणस्थानों का सकल विवरण सर्वज्ञवाणी से ही पूर्ण हो चुका था। पश्चात् क्रमशः कई ग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विवेचन करते हुए गणस्थानों को स्पर्श किया गया। प्राकृत भाषा का 'पञ्चसंग्रह' छठी शताब्दी में रचा गया था। अभी तक पूर्व कथित ग्रन्थों से आचार्य अपने शिष्यों को पढ़ा रहे थे। आठवीं शताब्दी में आचार्य वीरसेन स्वामी ने 'षटखण्डागम' और 'कसायपाहुड' पर प्राकृत भाषा में ही बृहत्काय टीकायें धवला, जयधवला एवं महाधवला के नाम से रची। कर्मसिद्धान्त के क्षेत्र में इन टीकाओं ने अपने विशिष्ट एवं प्रामाणिक स्थान बना रखा था। ये सिद्धान्त ग्रन्थ की श्रेणी में आते थे तथा दिगम्बर मुनियों के अतिरिक्त किसी को भी इनका स्वाध्याय नहीं कराया जाता था। दसवीं शताब्दी में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अपने प्रिय गृहस्थ शिष्य चामुण्डराय को पढ़ाने के लिये 'गोम्मटसार' नामक ग्रन्थ इन ही धवलादि टीकाओं के आधार पर रचा। इसके दोनों भाग 'जीवकाण्ड' एवं 'कर्मकाण्ड' में गुणस्थानों का तलस्पर्शी विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इन्होंने ही लब्धिसार, क्षपणासार जैसे जटिल कर्मसिद्धान्त ग्रन्थों की रचना भी की। इसी प्रकार आचार्य देवसेन स्वामी ने भी अपने 103 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org