________________ प्रथम परिच्छेद : गुणस्थान का स्वरूप एवं भेद भगवान महावीर ने जिस तत्त्व-दर्शन का प्रचार किया उसकी छाया भी अन्य दार्शनिक प्राप्त न कर सके। जैनदर्शन जितना सूक्ष्म तत्त्व निर्णय उपस्थित करता है, शायद ही अन्य दर्शन उस तक पहुँचने का मन बना पाते हैं। चाहे बात अहिंसा की हो या अनेकान्त की, चाहे बात अपरिग्रह की हो या स्याद्वाद शैली की, इन सभी में जैनदर्शन अनोखा है। - जैन आगम में वर्णित गुणस्थान वस्तुतः जैन दार्शनिकों, आचार्यों एवं तीर्थङ्करों की उन असंख्य मौलिक विवेचनाओं में से एक है जिसे आज तक अन्य जैनेतर दर्शन स्पर्श भी नहीं कर पाये, न शब्दों से न ही अर्थ से। गुणस्थान को प्राथमिक दृष्टि से देखने पर वर्तमान शिक्षा प्रणाली की तरह दिखता है, परन्तु इस शिक्षा प्रणाली से पूर्णतया अलग ही है, न ही इसके प्रत्येक दर्जे पर समान समय लगता है, न ही क्रम से आगे बढ़ने की अनिवार्यता है और न ही सभी जीव इसमें समान रूप से आगे बढ़ सकते हैं। गुणस्थान का वर्णन अत्यन्त रहस्यमय प्रतीत होता है, क्योंकि गुणस्थान की पहचान वर्तमान में अवधिज्ञान आदि विशिष्ट ज्ञान के अभाव में असंभव ही है। श्रुतज्ञान की सहायता से तीक्ष्ण विचार करने पर भी अनुमान ही लगाया जा सकता है। यही कारण है कि प्रत्यक्षज्ञानी सर्वज्ञ भगवान के उपदेश में आने के बाद भी अन्य दार्शनिकों की कल्पना में नहीं आ सका। प्रत्यक्ष सिद्ध न होने के कारण ही गुणस्थान का अध्ययन एवं अध्यापन मात्र विशेष संयमधारियों तक ही सिमटा रहा। सामान्य जनता को समझाने के लिये आचार्यों ने ग्रन्थ लेखन प्रारम्भ किया तथा भाषा का चुनाव जनता के अनुरूप ही किया। प्राचीन काल से ही प्राकृत भाषा सामान्य लोकभाषा की तरह प्रचलित थी, यह बहुत सरल एवं रसोत्पादक थी। अतः प्राकृत में ही गुणस्थानों का रहस्य लिपिबद्ध करना उचित समझा गया। एक कारण यह भी हो सकता है कि यदि आचार्य प्राकृतेतर भाषा का चुनाव करते तो गुणस्थानों का जटिल विषय अत्यन्त जटिल बन जाता एवं विद्वानों के लिये भी 'अष्टसहस्री' की तरह 'कष्टसहस्री' हो जाता। मेरा यह विचार इसलिए है, क्योंकि आधकांश प्राकृत ग्रन्थों की टीका संस्कृत में लिखी गई, परन्तु धवला आदि टीका ग्रन्थ 101 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org