________________ परन्तु यह निवृत्ति बादर गुणस्थान अपूर्वकरण गुणस्थान का ही नामान्तर है। वेताम्बर परम्परा दोनों को पर्यायवाची की तरह ही व्याख्या करती है। अतः 14 गुणस्थानों के नामों के विषय में कोई भी मतभेद दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में दृष्टिगत नहीं होता है। इनमें क्रमपरिवर्तन भी असंभव ही है, क्योंकि प्रत्येक गुणस्थान अपने निश्चित योग्यताओं को पूर्ण करने वाले जीवों का अन्वेषण इस ही क्रम से संभव हो सकता है। 1. मिथ्यात्व गुणस्थान प्रथम गुणस्थान का पूर्ण नाम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। मिथ्या, वितथ, व्यलीक और असत्य ये एकार्थवाची हैं। दृष्टि शब्द का अर्थ दर्शन या श्रद्धान है। इससे यह तात्पर्य हुआ कि जिन जीवों के विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञान रूप मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुई मिथ्यारूप दृष्टि होती है, उन्हें मिथ्यादृष्टि जीव कहते हैं।' मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से होने वाला तत्त्वार्थ का अश्रद्धान मिथ्यात्व कहलाता है। मिथ्यादृष्टि जीव नियम से उपदिष्ट यथार्थ प्रवचन का तो श्रद्धान नहीं करता परन्तु उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भाव (असत् पदार्थों) का श्रद्धान करता है। मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यादृष्टि की क्या अवस्था होती है। यह बताते हुए आचार्य देवसेन स्वामी लिखते हैं कि - मिच्छत्तरस पउत्तो जीवो विवरीय दंसणो होई। ण मुणइ हियं च अहियं पित्तज्जुरजुओ जहा पुरिसो॥' अर्थात् मिथ्यात्व कर्म के उदय होने से यह जीव विपरीत दुष्टि हो जाता है और पित्तज्वर वाले पुरुष के समान अपने हित अहित हो नहीं जान सकता। जिस प्रकार धतूरा, मद्य और कोदों की मधुरता के मोह से मोहित हुआ यह जीव कार्य अकार्य को नहीं जानता, अपना हित नहीं पहचानता, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव भी मिथ्यात्व कर्म के उदय से अपना हित अहित वा कार्य अकार्य नहीं जान ध. 1/1, 1,9/162/2 जी. का. गा. 16,18, ल. सा. गाथा 8, स. सि. 2/6/159, भ. आ. गा. 56, स. सा. ता. वृ. 88/144 भावसंग्रह गा. 13, गो. जी. का. गा. 17 107 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org