________________ तो हम सबके समझ से परे है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब अलग-अलग ग्रन्थ की रचना होती है तो उस समय में उनका क्या अभिप्राय रहता है ये कोई भी नहीं कह सकता। जब नित्य शब्द लिखा होगा तब शायद वे शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से जीव शद्ध तथा शाश्वत है ऐसा अभिप्राय ग्रहण कर रहे हों और जब अनित्य शब्द लिखा हो तब क्योंकि संसारी जीव की पर्याय नित्य नहीं है ऐसा ग्रहण कर रहे हों। अब पर्यायार्थिक नय के छठवें और अन्तिम भेद को आचार्य कहते हैं कि - जो नय संसारी जीवों की अनित्य और अशुद्ध पर्यायों का कथन करता है वह विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय कहलाता है। इस नय के कथन में कर्मबन्ध की अपेक्षा साथ में होने से अनित्य, अशुद्ध और विभाव शब्द का ग्रहण किया है। जैसे संसारी जीवों का जन्म-मरण होता है। नैगम नय ___ अब नैगमनय का स्वरूप बताते हैं जो द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के अनन्तर क्रमप्राप्त है। नैगम नय का स्वरूप कहते हैं - जो कार्य निष्पन्न नहीं हुआ है उसका संकल्प मात्र कर लेना नैगमनय कहलाता है। नैगम नय के तीन भेद बताये गये हैं. भत, भावि और वर्तमान। नैगम नय के तीन भेदों में प्रथम भेद के स्वरूप को कहते हैं - भूतकाल में हो चुकी क्रिया को वर्तमान में कहने वाला नय भूत नैगम नय कहलाता है। जैसे - दीपावली के दिन ऐसा कहना कि आज महावीर भगवान् का निर्वाण दिवस है। अब द्वितीय भेद भावि नैगम नय का स्वरूप कहते हैं - जो कार्य अभी पूर्णता को प्राप्त नहीं हआ है भविष्यकाल में पूर्णता को प्राप्त होगा, परन्तु उसको वर्तमान में ही निष्पन्न होना कहता है वह भावि नैगम नय है। जैसे - अरिहन्त भगवान् को सिद्ध भगवान् कहना। राजकुमार को राजा कहना। तृतीय जो वर्तमान नैगम नय है उसका स्वरूप प्रदर्शित करते हैं - किसी कार्य को प्रारम्भ करने पर भी उसको पूर्ण हुआ कहता है वह वर्तमान नैगम नय कहलाता है। अनभिनिर्वृत्तार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः। स. सि. 1/33 नैगमस्त्रेधा भूतभाविवर्तमानकालभेदात्। आलापपद्धति 64 85 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org