________________ ततीय परिच्छेद : नय की अपेक्षा स्वभाव वर्णन नयों के स्वरूप को भली-भाँति जानकर के नयों का प्रयोग करके जो अपने कथनों की प्रवृत्ति करता है वास्तविकता में वही विद्वान् है। नय, प्रमाण का ही एक अंश के यह हम पहले ही समझ चुके हैं। नय को समग्र रूप से प्रस्तुत करना एक बहुत बड़ी कला है। उसी प्रकार नयों का योजन विभिन्न स्थानों में भी करना चाहिये। इसीलिए आचार्य देवसेन स्वामी ने एक अलग ही विषय प्रस्तुत किया है, किस-किस द्रव्य में किन-किस नय की अपेक्षा कौन-कौन स्वभाव पाया जाता है, इसको कहते हैं कि - स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को ग्रहण करने वाले द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से अस्तिस्वभाव है। इसी तरह परचतुष्टय को ग्रहण करने वाले द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नास्तिस्वभाव है। उत्पाद-व्यय को गौण करके ध्रौव्य को ग्रहण करने वाले शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नित्य स्वभाव है। ध्रौव्य को गौण करके उत्पाद-व्यय को ग्रहण करने वाले अनित्य शुद्धपर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अनित्य स्वभाव है। भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा एकस्वभाव है अर्थात् जीव के न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है वह तो एक ज्ञायकशुद्ध स्वभाव वाला है। अन्वय द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से एक द्रव्य के भी अनेक स्वभाव पाये जाते हैं। जैसे - किसी पुरुष की बाल-वृद्ध अवस्था होती है। . सद्भूत व्यवहार उपनय की अपेक्षा गुण-गुणी में, पर्याय-पर्यायी में संज्ञा आदि की अपेक्षा भेद स्वभाव है और भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा गुण-गुणी आदि में अभेदस्वभाव है। पर्याय-पर्यायी में प्रदेश भेद नहीं होने से अभेद स्वभाव है। परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा भव्य और अभव्य पारिणामिक स्वभाव हैं। शुद्धाशुद्ध परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से जीव के चेतन स्वभाव है। यह छद्मावस्था की अपेक्षा कथन किया है तब वह अशुद्ध रहता है और परमात्म अवस्था में शुद्ध हो जाता है। असद्भूत व्यवहार उपनय की अपेक्षा कर्म, नोकर्म के भी चेतन स्वभाव है, क्योंकि पौद्गलिक कर्म जीव के परिणामों से अनुरंजित होने के कारण कथञ्चित् चेतन है। परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा कर्म, नोकर्म के अचेतन स्वभाव है। विजात्यसद्भुत व्यवहारनय की अपेक्षा जीव के भी अचेतन स्वभाव है। कर्मबन्ध के कारण न कि निजस्वभाव की अपेक्षा जीव के अचेतन स्वभाव है। 94 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only Jain Education International